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वैज्ञानिक युग और अहिंसा
[ लेखक-श्रीरतन जैन पहाड़ी ]
आधुनिक वैज्ञानिक युग किस प्रकार प्रगति- व्याप्त है, प्रारम्भ तो हुआ पिछले प्रयोगोंसे लेकिन पथपर अग्रसर होरहा है, इसपर सब हम दृष्टिपात खत्म हुआ “परमाणुबम"से । इसमें सन्देह नहीं कि करते हैं तो इन वायुयानोंकी गड़गड़ाहटके साथ-साथ अगला युद्ध प्रारम्भ तो होगा इस नवाविष्कृत हमें मानवकी करुण पुकारका भी प्रत्यक्ष बोध होता "अणुबम"मे और खत्म होगा महाप्रलय द्वारा ही। है। प्राचीन युगकी तलना प्राजके वैज्ञानिक युगसे इस प्रगतिमें कोई रोक-थाम नहीं कर सकता । की जाय तो भले ही किसी रूपमें आजका युग कुछ पश्चिम वाले जिस विभीषिकाको शान्तिका दूत मानते अग्रसर कहा जा सके, लेकिन अधिकांश रूपमें और हैं वही विभीषिका आने वाले चन्द दिनोंमें उनके जहाँतक “शान्ति"के अस्तित्वका सम्बन्ध है, नाशका कारण बनेगी। जिन शस्त्रास्त्रोंका प्रयोग वे प्रायः निराश ही होना पड़ेगा।
आज शत्रके निर्दलन-स्वरूप करते हैं और उसे
अपनी रक्षाका सम्बल मान शान्ति-प्रसारक मानते है अणुबमके इस युगमें जहाँ पाँच ही मिनटमें वे ही उन्हें जगतसे नेस्तनाबूद करनेमें सहायक होंगे, सैकड़ों मील तकके मकान, रहने वाले मनुष्य एवं इसमें सन्देहकी बात नहीं। पशु-पक्षियोंका सफाया हो जाता है तथा उस बम-प्रभावित क्षेत्रमें आने वाला व्यक्ति भी घुट-घुटकर
अगर इससे रक्षाका कोई उपाय है तो वह मृत्युका ग्रास हो जाता है। ऐसे समयमें हम मानवसे
अहिंसा ही । मानवकी मानवता, सुख-शान्तिका मानवताके संरक्षणकी कल्पना कहाँतक कर सकते साम्राज्य स्थापित रखनेके लिये अहिंसा ही एक ऐसा हैं ? प्राचीन समयमें दो सेनाएँ आपसमें शाल मूलमन्त्र है जिसके बलपर प्रत्येक प्राणी अपना बाँधकर लड़ती थीं—प्रजा अपना कार्य करती थी,
अस्तित्व कायम रखते हुए सुख-शान्तिका जीवनलेकिन आज तो बड़े गौरवके साथ यह कहा जाता ।
यापन कर सकता है । वृद्ध भारत अहिंसाकी शिक्षाका है कि "समूचा देश-का-देश युद्ध मोर्चेपर है"। सदासे शिक्षक रहा है। समय-समयपर इस भारतमें पहले आजकी तरह युद्ध न होते थे. लेकिन आज तो ऋषि व महात्माअनि अवतरित हो अहिंसाका पावन "सभ्यता" और उसका यदसे सम्बन्ध दो भिन्न-भिन्न उपदेश जगतको दिया और भारतको आध्यात्मिकतावस्तुएँ दृष्टि-गोचर होती हैं । युद्धका सभ्यतासे की चरम सीमापर पहुँचनेका गौरव प्रदान किया। कोई सम्बन्ध ही नहीं रह गया है किन्तु किसी भी मशीन आदि उत्पादक साधनोंके विषयमें हम तरह शत्रुको पराजित करना ही युद्धका एकमात्र यह पूर्ण रूपसे माननेको प्रस्तुत हैं कि देशकी ध्येय होता है । चाहे वह अन्यायसे हो या और व्यापारिक उन्नतिके लिये मशीनोंका प्रयोग आवश्यक किसी उचित-अनुचित तौर-तरीकेस । इसी कारण- है, लेकिन भारतवर्षको किसी रूपमें यह प्रयोग देखिये ! प्रत्येक युद्ध में नये-नये शस्त्रास्त्रोंका प्रयोग हानि-प्रद ही सिद्ध हुआ है-विघातक ही सिद्ध हुआ होता चला रहा है। पिछला युद्ध टैक और हवाई है न कि वरदान-स्वरूप । चर्खे एवं करघेका उपयोग जहाजोंके प्रयोगोंसे खत्म हुआ, लेकिन यह युद्ध, “गान्धीवाद"का प्रमुख अङ्ग है । ऐसे देशमें जहाँ जिसकी छाया पूर्णरूपमें अभी भी हमारे ऊपर हजारों-लाखों मनुष्य बिना अन्न-वस्त्रके इस धरतीसे