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किरण ८-९ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
इजराऽजरः' ।१२३। नहीं है और इसी
पाठकोंको ज्ञात है कि मैंने केवलीमें इन दोषोंका लिखा है:-"किन्तु पण्डितजी अपनी विवक्षा मिल अभाव प्रमाणित करनेके लिये स्वयम्भूस्तोत्रके जानेके हर्षके आवेगमें 'अजः' पर ही रुक गये, प्रमाणोल्लेखोंको उपस्थित किया था, जो निम्न उन्होंने आगे दृष्टि डालकर नहीं देखा जहाँ 'निवृतः' प्रकार हैं
विशेषण लगा हुआ है और अर्थको उनकी विवक्षासे (क) 'अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्म-ज्वरसखा सदा। परे ले जाता है, क्योंकि उससे स्पष्ट है कि यह वर्णन
वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः।।१३॥' भगवानकी सिद्ध अवस्थाका है।" (ख) 'तस्माद् भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः' ।।
पाठकगण, प्रो० सा० से पूछिए कि यहाँ तो
'निवृतः' विशेषण लगा हश्रा है और इसलिये इस (ग) 'त्वमुन्तमज्योतिरजः व निर्वतः ॥५०॥
वणनको वे भगवानकी सिद्ध अवस्थाका वर्णन (घ) 'त्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्मनिगलं, बतलाते हैं पर अन्य चार उल्लेखोंमें क्या कहेंगे;
समूलं निभिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवीः।'११७/ क्योंकि उनमें 'निवृतः' अथवा उस जैसा कोई (ङ) 'शीलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमि विशेषण नहीं है ? इसका उत्तर प्रो० सा० के पास
नहीं है और इसीलिये उन उल्लेखोंकी उन्होंने उपेक्षा इनमें पहले उल्लेखमकेवली में जन्म ,ज्वर,अन्तक
की है, यह स्पष्ट होजाता है। आपने मुझे मेरी इन तीन दोषोंकी स्पष्ट व्यावृत्ति सूचित कीगई है। दूसरे, व
विवक्षा मिल जानेके हर्षका आवेग बतलाते हुए तीसरे और चौथे इन तीन उल्लेखों में जन्मका अभाव निवृतः' विशेषणपर दृष्टि डालकर न देखनका दोषा
और पाँचवें उल्लेख जगका अभाव उनमें प्रतिपादित रोपण करके पाठकोंकी दृष्टिमें अज्ञ बतलाना चाहा है। किया है और इस तरह इन प्रमाणोल्लेखोंसे केवलीमें पर व यह भूल जाते है कि यह स्वयम्भूस्तोत्र जन्म, ज्वर, अन्तक और जरा इन चार दोपोंके अरहन्त अवस्थाका स्तवन है, सिद्ध अवस्थाका नहीं अभावकी श्राप्तमीमांसाकारकी मान्यता सिद्ध हो और इसीलिये उसे अरहन्तस्तवन, चतुविशाजनजाती है। प्रो० सा० ने इन उल्लेखोंमेंसे तीसरे उल्लेख- स्तुति, चतुर्विंशतितीर्थकरस्तवन आदि नामोंसे कहा के बारेमें तो कुछ लिखनेका कष्ट किया है पर अन्य
जाता है, सिद्धस्तवन आदि नामोंसे नहीं । स्वयम्भूचार उल्लेखोंको उपेक्षाके साथ लोड दिया है। यह शब्द भी जिनका ही वाची है--सिद्धका नहीं । यदि उन्होंने क्यों किया ? यह पाठकोंपर प्रकट होजाता
हम दोनोंका भी उसमें स्तवन मान लें तो 'निवृतः' है; क्योंकि वास्तव में वे उल्लेख दिनकर प्रकाशकी तरह
का केवल सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करना ही अर्थ नहीं स्पष्ट हैं और उनमें जन्म, ज्वर, अन्तक, जरा इन
है। जैनसिद्धान्तका साधारण अभिज्ञ भी यह जानता चार दोषोंका केवलीमें अभाव बिना किसी सन्देहके
है कि निवृति जैनसिद्धान्तमें दो प्रकारकी कही गई वणित है और इसलिये वे उल्लेख उनकं अभीप्रके ह–१ 'पर निवृति' और २ 'अपर निवृति"। परबाधक होनेसे उपेक्षित हुए हैं । मुझे इस सम्बन्धमें
निवृति मिद्ध अवस्थाका और अपरनिवृति अरहन्त इतना ही कहना है कि विद्वानको तभी तक अपना अवस्थाका नाम है। कोंके नाश और आत्मस्वरूपपक्षाग्रह रखना उचित है जब तक उसे समझम न
की प्राप्तिको निवृति (मोक्ष) कहा गया है। अरहन्त आये । समझनेके बाद भी यदि वह अपना पक्षाग्रह १ 'निःश्रेयसं परमपरं च । तत्र परं सकलकर्मविप्रमोक्षबनाये रखता है तो मेरे खयालसे उसे वीतरागचर्चा- लक्षणम्, बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो का ढोंग छोड़ देना चाहिये । तीसरे उल्लेखके बारेमें मोक्ष इति वचनात् । ततोऽपरमाईन्त्यलक्षणम्, घातिप्रो० सा० ने क्या लिखा, उसे भी पाठकोंको देख कर्मक्षयादनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभस्यापरनिःश्रेयसत्वात् ।' लेना चाहिये । मेरे शब्दोंका हवाला देते हुए आपने
-श्राप्तपरीक्षा पृष्ठ १ ।