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अनेकान्त
[ वर्ष ८
चूंकि चार घातियाकोको नाश करते हैं और कहो शीतल जिन हैं उसीकी विज्ञजनों-समझदारोंको अनन्तचतुष्टयरूप आत्मस्वरूपको प्राप्त होते हैं, इस पूजादि करना चाहिए और मैं भी उन्हींकी पूजा लिये उन्हें परमात्मा, मुक्त, निवृत, अरहन्त आदि करता हूँ।' पाठक, उस पूरे पद्यको नीचे देखिये और विशेषणों द्वारा स्मरण किया जाता है और इसलिये उसके प्रत्येक पदके अर्थपर गौर करिये । यहाँ ('त्वमुत्तमज्योतिरज:क निवृत:'-५०) 'निवृतः' _ 'त्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतःविशेषणसे अरहन्त अवस्थाका ही वर्णन किया गया
व ते परे बुद्धिलवोद्धवक्षताः । है, न कि सिद्ध अवस्थाका । दूसरे, इस अन्तिम पद्यमें 'जिन' को सम्बोधन बनाया गया है,
ततः स्वनिःश्रेयसभावनापरैसिद्धको नहीं और इसलिये उससे भी स्पष्ट है कि र्बुधवेकैर्जिन ! शीतलेड्यसे ।' यहाँ जिनावस्थाका-केवली अवस्थाका प्रतिपादन इस पद्यपरसे एक ऐतिहासिक रहस्यका भी है और यह प्रकट है कि जिन और सिद्ध एक नहीं उद्घाटन होता है। वह यह कि जो आज शीतला हैं-दोनों भिन्न हैं । तीसरे, इस पद्यमें शीतल जिनकी (चेचक) आदिकी निवृत्तिके लिये शीतला माताकी उन हरि, हर, हिरण्यगर्भादि संसार प्रसिद्ध अन्य या अन्य हरिहरादिकी पूजा लोकमें प्रचलित चली आप्तों-देवोंसे तुलना करते हुए उत्कृष्टता बतलाई गई आरही है वह समन्तभद्रक समयमें भी प्रचलित है जिन्हें ही अधिकांश दुनिया प्राप्त (यथार्थ देव) थी और जोरोंपर थी । इसीलिये उन्होंने इस समझती है। और इसलिये भी इस पद्यमें सिद्ध देवमूढता व लोक-मूढताको शीतलजिनकी पूजाके अवस्थाका वर्णन नहीं माना जासकता है । वास्तवमें विधान द्वारा हटानेका उसी प्रकार जोरदार प्रयत्न बात यह है कि जब बच्चों आदिको शीतला आदिकी किया है जिस प्रकारका रत्नकरण्डश्रावकाचारमें बीमारी होजाती है तो लोग उसकी निवृत्तिके लिये देवमूढतादिको हटानेका किया है । इन सब बातोंसे शीतलामाता आदि खोटे देवोंकी, जो न पूर्ण ज्ञानी स्पष्ट है कि इस पद्यमें कंवली अवस्थाका ही वर्णन हैं और न पूर्ण नियंत (सखी) हैं किन्त थोडेसे ज्ञान- है, जब उन्हें जिन कहा जाता है श्री में ही मदान्ध हैं-उस रांग निवृतिका अपने में पूरा उपदेश करते हैं । यहाँ सिद्ध अवस्थाका वर्णन ज्ञान मान बैठे हैं तथा स्वयं रागद्वेषादिसे पीडित हैं, बिल्कुल भी नहीं है। यदि सिद्धोंको भी कहीं जिन पूजादि करते हैं और इस प्रकार समस्त संसारमें कहा गया हो तो कृपा कर प्रो. सा. बतलायें ? अज्ञजनोंमें जो एक बड़ी भारी मूढता-लोकमूढता अतएव वहाँ सिद्ध अवस्थाका वर्णन बतलाना अथवा देवमूढता फैली हुई चली आरही है उसको प्रसङ्गत है ।। दर करनेका इस पद्यमें प्रयत्न किया गया है और प्रो. सा. अपने कथनको सङ्गत-असङ्गत न सहेतु यह सिद्ध किया गया है कि 'शीतल जिनकी समझते हुए केवल पक्षाग्रहवश आगे और भा ही पूजादि करना श्रेष्ठ है क्योंकि वे उत्तमज्योति हैं- लिखते हैं-"४८वें पद्यमें भगवानके अप्रमत्त संयमपरिपूर्ण ज्ञानी हैं और स्वयं श्रज एवं पूर्ण सुखी हैं- का उल्लेख है । उसके पश्चात ४९वें पद्यम उनके मंयोग रागद्वेषादि किसी भी बीमारीसे स्वयं पीडित नहीं हैं अवस्थासे अयोगि बननेका प्रयत्न वर्णित है। और और इसलिये सच्चे रोग निवर्तक कहो, सच्चा वैद्य' ५०वें पद्यमें अयोगिसे ऊपर निवृत अवस्थामें १ अरहन्तको वैद्य भी स्वयं ग्रन्थकारने इसी स्वयम्भस्तोत्रके 'उत्तमज्योति' और 'अज' गुणोंका निरूपण पाया निम्न ११वें पद्यमें स्वीकार किया है:-
जाता है। इसी ज्योतिके प्रकाशमें यदि पंडितजी उन त्वं शम्भवः सम्भवतर्षरोगेः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके। सब उल्लेखोंको देखेंगे जिन्हें वे प्राप्तमें जन्म, जरादि श्रासीरिहाकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरुजां प्रशान्त्यै ।। १देखो, २२ और २३वाँ पद्य ।