Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 468
________________ ३२२ अनेकान्त 'गोम्मट - सूत्रके लिखे जानेके अवसर पर - गोम्मटसार शास्त्र की पहली प्रति तय्यार किये जानेके समय - जिस गोम्मटरायके द्वारा देशीकी रचना की गई है—देशकी भाषा कनडीमें उसकी छायाका निर्माण किया गया है - वह 'वीरमार्तण्डी' नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त राजा चिरकाल तक जयवन्त हो ।' यहाँ 'देशी'का अर्थ 'देशकी कनडी भाषा में छायानुवादरूपसे प्रस्तुत की गई कृति' का ही सङ्गत बैठता है न कि किसी वृत्ति अथवा टीकाका; क्योंकि ग्रन्थकी तय्यारीके बाद उसकी पहली साफ़ कापीके अवसर पर, जिसका ग्रन्थकार स्वयं अपने ग्रन्थके अन्तमें उल्लेख कर सके, छायानुवाद-जैसी कृतिकी ही कल्पना की जा सकती है, समय-साध्य तथा अधिक परिश्रमकी अपेक्षा रखनेवाली टीका-जैसी वस्तुकी नहीं। यही वजह है कि वृत्तिरूपमें उस देशीका अन्यत्र कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता - वह संस्कृतछायाकी तरह कन्नड - छायारूप में ही उस वक्तकी कर्नाटक- देशीय कुछ प्रतियों में रही जान पड़ती है । [ वर्ष : तुलना उन 'बालेन्दु' पंडितसे की है जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके ई० सन् १३१३ के शिलालेख नं० ६५ में हुआ है' और जिनकी प्रशंसा अभयचन्दकी प्रशंसा के साथ बेलूर के शिलालेखों नं० १३१-१३३ में की गई है और जिन परसे बालचन्द्र के स्वगवासका समय ई० सन् १२७४ तथा अभयचन्द्रके स्वर्गवासका समय ई० सन् १२७९ उपलब्ध होता है । और इस तरह 'मन्दप्रबोधिका ' का समय ई० सन्की १३वीं शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर किया जा सकता है। शेष रही पंडित टोडरमल्लजीकी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' टीका, उसका समय सुनिश्चित है ही - वह माघ सुदी पञ्चमी सं० १८१८ को लब्धिसार-क्षपणासारकी टीकाकी समाप्तिसे कुछ पहले ही बनकर पूर्ण हुई है । इसी हिन्दी टीकाको, जो खूब परिश्रमके साथ लिखी गई है, गोम्मटसार ग्रन्थकं प्रचारका सबसे अधिक श्रेय प्राप्त है। मैं दूसरी दो टीकाओंके सम्बन्ध में इतना और बतला देना चाहता हूँ कि अभयचन्द्रकी 'मन्दप्रबोधिका' टीकाका उल्लेख चूँकि केशव वर्णी कन्नड-टीका में पाया जाता है इससे वह ई० सन् १३५९ से पहलेकी बनी हुई है इतना तो सुनिश्चित है; परन्तु कितने पहले की ? इसके जाननेका इस समय एक ही साधन उपलब्ध है और वह है मंदप्रबोधिका में एक 'बालचन्द्र पण्डितदेव' का उल्लेख ' । डा० उपाध्येने, अपने उक्त लेखमें इनकी १ जीवकाराड, कलकत्ता संस्करण, पृ० १५० | इन चारों टीकाओं के अतिरिक्त और भी अनेक टीका-टिप्पणादिक इस ग्रन्थराजपर पिछली शताब्दियों में रचे गये होंगे; परन्तु वे इस समय अपनेको उपलब्ध नहीं हैं और इसलिये उनके विषयमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता * । १ एपिफिया कर्णाटका जिल्द नं० २ । २ एपिफिया कर्णाटिका जिल्द नं० ५ । यह लेख 'पुरातन जैनवाक्य सूची' की अपनी अप्रकाशित प्रस्तावना के 'ग्रन्थ र ग्रन्थकार' प्रकरणका एक अंश है। - जुगलकिशोर मुख्तार

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