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किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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कि पद्यप्रशस्तिमें ग्रन्थकारने अपना नाम नेमिचन्द्र 'वीरमार्तण्ड' नामकी उपाधिकी दृष्टिसे उनका एक नहीं दिया, जबकि गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तिमें वह उपनाम है, न कि टीकाका नाम; जैसा कि स्पष्टरूपसे पाया जाता है, और उसका कारण इतना प्रो० शरश्चन्द्र घोशालने समझ लिया है, और ही है कि पद्यप्रशस्ति उत्तमपुरुषमें लिखी गई है। जो नाम गोम्मटसारकी टीकाके लिये उपयुक्त भी प्रन्थकी संधियों- "इत्याचार्य-नेमिचन्द्र-विरचितायां मालूम नहीं होता। मेरी रायमें 'जा' के स्थानपर गोम्मटसारापरनाम - पंचसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्व- 'ज' पाठ होना चाहिये, जो कि प्राकृतमें एक प्रदीपिकायां" इत्यादिमें-जीवतत्त्वप्रदीपिका टीकाके अव्यय पद है और उससे 'जेण' (येन) का अर्थ कतृ त्वरूपमें नेमिचन्द्रका नाम स्पष्ट उल्लिखित है और (जिसके द्वारा) लिया जा सकता है और उसका उससे गोम्मटसारके कर्ताका आशय किसी तरह भी
सम्बन्ध 'सो' (वह) पदके साथ ठीक बैठ जाता है। नहीं लिया जा सकता । इसी तरह संस्कृत-टीकामें
इसी तरह 'राओ' के स्थान पर 'जय' क्रियापद जिस कर्नाटकवृत्तिका अनुसरण है उसे स्पष्टरूपमें
होना चाहिये, जिसकी वहाँ आशीर्वादात्मक अर्थकी केशववर्णीकी घोषित किया गया है. चामुण्डरायकी
दृष्टिसे आवश्यकता है-अनुवादकों आदिने वृत्तिका उसमें कोई उल्लेख नहीं है और न उसका ।
'जयवंतप्रवर्तो' अर्थ दिया भी है, जो कि 'जयउ' अनुसरण सिद्ध करनेके लिये कोई प्रमाण ही
. पदका सङ्गत अर्थ है । दूसरा कोई क्रियापद गाथामें
है भी नहीं, जिससे वाक्यके अर्थकी ठीक सङ्गति उपलब्ध है। चामुण्डरायवृत्तिका कहीं कोई अस्तित्व मालूम नहीं होता और इसलिये यह सिद्ध करनेकी
घटित की जा सके। इसके सिवाय 'गोम्मटरायेण' कोई संभावना नहीं कि संस्कृत-जीवतत्त्वप्रदीपिका
पदमें 'राय' शब्दकी मौजूदगीसे 'राओ' पदकी
ऐसी कोई खाम जरूरत भी नहीं रहती, उससे चामुण्डरायकी टीकाका अनुसरण करती है। गो० कर्मकाण्डकी ९७२वीं गाथामें चामुण्डराय ।
गाथाके तृतीय चरणमें एक मात्राकी वृद्धि होकर (गोम्मटराय) के द्वारा जिस 'देशी'के लिखे जानेका
छंदोभङ्ग भी हो रहा है। 'जयउ' पदके प्रयोगसे उल्लेख है उसे 'कर्नाटकवृत्ति' समझा जाता है
यह दोष भी दूर हो जाता है। और यदि 'राओ'
पदको स्पष्टताकी दृष्टिसे रखना ही हो तो, 'जयउ' पर्थात् वह वस्तुतः गोम्मटमारपर कर्णाटकवृत्ति
पदको स्थिर रखते हुए, उसे 'कालं' पदके स्थानपर लिखी गई है, इसका कोई निश्चय नहीं है।'
रखना चाहिये; क्योंकि तब 'कालं' पदके बिना ही सचमचमें चामुण्डरायकी कर्णाटकवृत्ति अभी चि पदसे उमका काम चल जाता है। इस तरह तक एक पहली ही बनी हुई है, कर्मकाण्डकी उक्त ।
उक्त गाथाका शुद्धरूप निम्नप्रकार ठहरता है :गाथा' में प्रयुक्त हुए 'देसी' पद परसे की जानेवाली
गोम्मटसुत्तलिहणे गोम्मटरायेण जं कया देसी । कल्पनाके सिवाय उसका अन्यत्र कहीं कोई पता मो जयउ चिरंकालं (राओ) णामण य वीरमत्तंडी ॥ नहीं चलता । और उक्त गाथाकी शब्द-रचना बहुत कुछ अस्पष्ट है-उसमें प्रयुक्त हुए 'जा' पदका संबंध
___ गाथाके इस संशोधित रूपपर उसका अर्थ किसी दूसरे पदके साथ व्यक्त नहीं होता, उत्तरार्धमें।
Maa निम्न प्रकार होता है :'राम्रो' पद भी खटकता हश्रा है. उसकी जगह कोई १ प्रो० शरच्चन्द्र घोशाल एम. ए. कलकत्ताने, 'द्रव्यसंग्रह के क्रियापद होना चाहिये। और जिस 'वीरमांडी' ।
अँग्रेजी संस्करणकी अपनी प्रस्तावनामें, गोम्मटसारकी पदका उसमें उल्लेख है वह चामुण्डरायकी
उक्त गाथापरसे कनडी टीकाका नाम 'वीरमार्तण्डी'
प्रकट किया है और जिसपर मैंने जनवरी सन् १९१८ में, १ गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । अपनी समालोचना (जैनहितैषी भाग १३ अङ्क १२)
सो राम्रो चिरं कालं णामेण य वीरमत्तंडी ॥६७२॥ के द्वारा, आपत्ति की थी।