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अनेकान्त
[वर्ष ८
उसे 'कर्मकाण्ड' ही नाम दिया है-कर्मकाण्डका करना कि “कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमें उक्त 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार नाम नहीं, और अपनी ७५ गाथाएँ पहलेसे ही संकलित और प्रचलित है"" टीकाको 'कर्मकाण्डस्य टीका' लिखा है; जैसाकि ऊपर कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। एक फुटनोटमें उद्धृत किये हुए उसके प्रशस्ति- अब उन त्रुटित कही जाने वाली ७५ गाथाओंवाक्यसे प्रकट है। पं० हेमराजने भी, अपनी भाषा- पर, उनके प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारका आवश्यक टीकामें, ग्रन्थका नाम 'कर्मकाण्ड' और टीकाको तथा सङ्गत अङ्ग होने न होने आदिकी दृष्टिसे, 'कमकाण्ड-टीका' प्रकट किया है । और इसलिये विचार किया जाता है:शाहगढ़की जिस सटिप्पण प्रतिमें इसे 'कर्मकाण्डका (१) गो० कर्मकाण्डकी १५वीं गाथाके अनन्तर प्रथम अंश' लिखा है वह किसी गलतीका परिणाम जो 'सियअत्थिरणत्थि उभयं' नामकी गाथा त्रुटित जान पड़ता है। संभव है कर्मकाण्डके आदि-भाग बतलाई जाती है वह ग्रन्थ-संदर्भकी दृष्टिसे उसका 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' से इसका प्रारम्भ देखकर और संगत तथा आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होती; क्योंकि कर्मकाण्डसे इसको बहुत छोटा पाकर प्रतिलेखकने १५वीं गाथामें जीवके दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्वइसे पुष्पिकामें 'कर्मकाण्डका प्रथम अंश' सूचित गुणोंका निर्देश करके १६वीं गाथामें उनके क्रमका किया हो । और शाहगढ़की जिम प्रतिमें ढाई निर्देश किया गया है, बीचमें म्यान् अस्ति-नास्ति अधिकारके करीब कर्मकाण्ड उपलब्ध है उसमें कर्म- आदि सप्तनयोंका स्वरूपनिर्देशके बिना ही नामोल्लेखप्रकृतिकी १६० गाथाओंको जो प्रथम अधिकारके मात्र करके यह कहना कि 'द्रव्य आदेशवशसे इन रूपमें शामिल किया गया है वह संभवतः किसी ऐसे सप्तभङ्गरूप होता है। कोई सङ्गत अर्थ नहीं रखता। व्यक्तिका कार्य है जिसने कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसम- जान पड़ता है १५वीं गाथा सप्तभङ्गों द्वारा श्रद्धानकीर्तन' अधिकारको त्रुटित एवं अधुरा समझकर. की जो बात कही गई है उसे लेकर किसीने 'सत्तपं० परमानन्दजीकी तरह, 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थसे भंगीहिं' पदके टिप्पणरूपमें इस गाथाको अपनी उसकी पूर्ति करनी चाही है और इसलिये कर्मकाण्डके प्रतिम पंचास्तिकार
प्रतिमें पंचास्तिकायग्रन्थसे, जहाँ वह नं०१५ पर प्रथम अधिकारके स्थानपर उसे ही अपनी प्रतिमें पाई जाती है उद्धृत किया होगा, जो बादको संग्रह लिखा लिया अथवा लिख लिया है और अन्य बातों. करते समय कर्मप्रकृतिकं मूलमें प्रविष्ट हो गई । के सिवाय, जिन्हें आगे प्रदर्शित किया जायगा, शाहगढ़वाले टिप्पणमें इस प्रक्षिप्त सूचित भी इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया कि स्थितिबंधादि- किया है'। से संबन्ध रखनेवाली उक्त २३ गाथाएँ, जो एक (२) २०वीं गाथाके अनन्तर जीवपएसेक्केक्के, कदम आगे दूसरे ही अधिकारमें यथास्थान पाई अत्थिअणाईभूजा, भावण तेण पुनराव, एकसमयजाती हैं उनकी इस अधिकारमें व्यर्थ ही पुनरावृत्ति णिबद्धं, सो बंधोचउभेओ' इन पांच गाथाओंको जो हो रही है। अथवा यह भी हो सकता है कि वह त्रुटित बतलाया है.२ वे भी गाम्मटसारके इस कर्मकाण्ड कोई दूसरा ही बादको संकलित किया १ अनेकान्त वर्ष ३ किरण १२ पृ० ७६३ । हुआ कर्मकाण्ड हो और कर्मप्रकृति उसीका प्रथम २ अनेकान्त वर्ष ३ कि०८-६ पृ० ५४० । अधिकार हो । अस्तु; वह प्रति अपने सामने नहीं है मेरे पास कर्म-प्रकृतिकी एक वृत्तिसहित प्रति और और उतनी मात्र अधूरी भी बतलाई जाती है, अत: है, जिममें यहाँ पाँचके स्थानपर छह गाथाएँ हैं। छठी उसके विषयमें उक्त सङ्गत कल्पनाके सिवाय और गाथा 'सो बंधो चउभेश्रो' से पूर्व इस प्रकार है:अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी हालत _ 'याउगभागो थोवो णामागोदे समो ततो अहियो । में पं० परमानन्दजीका उक्त प्रतियों परसे यह फलित घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदी(दि)ये ॥