Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 463
________________ किरण ८-९] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र (5) कर्मकाण्डकी २८वीं गाथाके अनन्तर कर्म- गाथाएँ, जो संहनन-सम्बन्धी विशेष कथनको लिये प्रकृतिमें 'दुविहं विहायणाम, तह श्रद्धं णारायं, जस्स हुए हैं, यद्यपि प्रकरणके साथ सङ्गत हो सकती हैं कम्मम्स उदये वजमय, जस्सुदये वज्जमय, जस्सुदये परन्तु वे उसका कोई ऐसा आवश्यक अङ्ग नहीं कही वजमया, वज्जविसेसणरहिदा, जस्स कम्मस्स उदये जा सकतीं, जिसके प्रभावमें उसे त्रुटित अथवा अवज्जहडडा, जस्स कम्मस्स उदये अपणोएण' ये ८ असम्बद्ध कहा जा सके। मूल-सूत्रोंमें इन चारों ही गाथाएँ उपलब्ध हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमें त्रुटिन गाथाओंमेंसे किसीके भी विषयसे मिलता जुलता बतलाया जाता है। इनमेंसे पहली दो गाथाएँ तो कोई सूत्र नहीं है, और इसलिये इनकी अनुपस्थितिसे आवश्यक और सङ्गत हैं, क्योंकि वे मूल-सूत्रोंके कर्मकाण्डमें कोई असङ्गति पैदा नहीं होती। अनुरूप हैं और उनकी उपस्थितिसे कर्मकाण्डकी (१०) कर्मकाण्डकी ३२वीं गाथाके अनन्तर कर्मअगली तीन गाथाओं (२९, ३०, ३१) का अर्थ ठीक प्रकृतिमें 'पंच य वएणस्सेदं, तित्त कडुव कसायं, बैठ जाता है। शेष ६ गाथाए, जो छहा संहननाक फासं अट्टवियप्प, एदा चोइसपिंडप्पयडीओ, अगुरुस्वरूपकी निर्देशक हैं, इस अधिकारका कोई लघुगउवघाद' नामकी ५ गाथाएँ उपलब्ध हैं और आवश्यक तथा अनिवार्य अङ्ग नहीं कही जा सकती ३३वीं गाथाकं अनन्तर "तस थावरं च बादर, क्योंकि सब प्रकृतियांक स्वरूप अथवा लक्षण-निर्देश- सहअसहसहगभग, तसबादरपज्जत्तं, थावरकी पद्धतिको इस अधिकारमें अपनाया नहीं गया है। सुहमपज्जत्तं, इदिणामप्पयडीओ, तह दाणलाहभोगे" इन्हें भाष्य अथवा व्याख्यान गाथाएं कहा जा सकता यगाथाएँ उपलब्ध हैं, जिन सबको भी कमेकाण्डमें है। इनकी अनुपस्थितिसे मूल ग्रन्थ के सिलसिले अथवा त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेंसे ९ गाथाओंमें उसकी सम्बद्ध रचनामें कोई अन्तर नहीं पड़ता। नामकर्मकी शेष वर्णादि-विषयक उत्तरप्रकृतियोंका (९) कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति- और पिछली दो गाथाओंमें गोत्रकर्मकी २ तथा में 'घम्मा वंसा मेघा, मिच्छापुव्वदुगादिस, विमल- अन्तरायकर्मकी ५ उत्तरप्रकृतियोंका नामोल्लेख है। चउक्के छद्र, सव्वविदेहेसु तहा' नामकी ४ गाथाएँ यपि मल-सत्रोंके साथ इनका कथनक्रम कुछ भिन्न उपलब्ध हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्डमें त्रुटित बतलाया है परन्तु प्रतिपाद्य विषय प्रायः एक ही है, और जाता है। इनमेंसे पहली गाथा, जो नरकभूमियोंके इसलिये इन्हें सङ्गत तथा आवश्यक कहा जा सकता नामांकी है प्रकृत अधिकारका कोई आवश्यक अङ्ग है। ग्रन्थमें इन उत्तरप्रकृतियोंकी पहलेसे प्रतिष्ठाक मालूम नहीं होती। जान पड़ता है ३१वीं गाथाम बिना ३३वीं तथा अगली-अगली गाथाओम इनसे 'मेघा' पृथ्वीका जो नामोल्लेख है और शेप नरक- सम्बन्ध रखने वाले विशेप कथनोंकी सङ्गति ठीक भूमियोंकी बिना नामके ही सूचना पाई जाती है, उसे नहीं बैठती । अतः प्रतिपाद्य विषयकी ठीक व्यवस्था लकर किसीने यह गाथा उक्त गाथाकी टिप्पणी रूपमें के लिय इन सब उत्तरप्रकृतियांका मूलतः अथवा त्रिलाकमार अथवा जबूद्वीप प्रज्ञाप्त परसे अपनी प्रतिम उद्देश्यरूपमें उल्लेख बहुत जरूरी है-च चाहे वह उदधृत की होगी, जहाँ यह क्रमशः नं० १४५ पर सत्रों में हो या गाथाओंमें।। तथा ११वें अ० के न० ११२ पर पाई जाती हे, ओर (११) कर्मकाण्डकी ३४वी गाथाके बाद कमवहाँसे मंग्रह करते हुए यह कर्मप्रकृतिके मूल में प्रविष्ट प्रकतिमें 'वएणरसगंधफासा' नामकी जो एक गाथा हो गई है । शाहगढ़के उक्त टिप्पणमें इसे भी पाई जाती है उसमें प्रायः उन बन्धरहित प्रकृतियोंका 'सियअस्थिणत्थि' गाथाकी तरह प्रक्षिप्त बतलाया है ही स्पष्टीकरण है जिनकी सूचना पूर्वकी गाथा (३४) और सिद्धान्त-गाथा प्रकट किया है' । शेष तीन में की गई है और उत्तरको गाथा (३५) से भी जिनकी १ अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२, पृष्ठ ७६३ मंख्या-विषयक सूचना मिलती है, और इसलिये वह

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