Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 461
________________ किरण ८-९] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र ३१५ प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारका कोई आवश्यक अङ्ग होती। उनकी उपस्थितिमें २१वीं और २२वीं दोनों मालूम नहीं होती और न संगत ही जान पड़ती हैं; गाथाएँ व्यर्थ पड़ती हैं। क्योंकि २१वीं गाथामें जब क्योंकि २०वीं गाथामें आठ कर्मोंका जो पाठ-क्रम है दृष्टान्तों-द्वारा आठों कर्मोके स्वरूपका और २२वीं उसे सिद्ध सूचित करके २१वीं गाथामें दृष्टान्तों द्वारा गाथामें उन कर्मोंकी उत्तर प्रकृति-संख्याका निर्देश है उनके स्वरूपका निर्देश किया है, जो संगत है। इन तब इन आठों गाथाओंमें दोनों बातोंका एक साथ पांच गाथाओंमें जीवप्रदेशों और कर्मप्रदेशोंके निर्देश है। इन गाथाओंमें जब प्रत्येक कर्मकी अलग बन्धादिका उल्लेख है और अन्तकी गाथामें बन्धके अलग उत्तरप्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश किया प्रकृति, स्थिति आदि चार भेदोंका उल्लेख करके यह जाचुका तब फिर २२वीं गाथामें यह कहना कि सूचित किया है कि प्रदेशबन्धका कथन ऊपर हो 'कर्मोंकी क्रमशः ५, ९, २, २८, ४, ९३ या १०३, चुका;' चुनाँचे आगे प्रदेशबन्धका कथन किया भी २, ५ उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं' क्या अर्थ रखता है ? नहीं। और इसलिये पूर्वापर कथनके साथ इनकी व्यर्थताके सिवाय उससे और कुछ भी फलित नहीं सङ्गति ठीक नहीं बैठती । कर्मप्रकृति ग्रन्थमें चंकि होता। एक सावधान ग्रन्थकारके द्वारा ऐसी व्यर्थ चारों बंधोंका कथन है, इसलिये उसमें खींचतान रचनाकी कल्पना नहीं की जासकती। ये गाथाएँ करके किसी तरह इनका सम्बन्ध बिठलाया जासकता यदि २२वीं गाथाके बाद रक्खी जाती तो उसकी है परन्तु गोम्मटसारके इस प्रथम अधिकारमें तो भाष्य-गाथाएँ होसकती थीं, और फिर २१वीं गाथाइनकी स्थिति समुचित प्रतीत नहीं होती, जबकि को देनेकी जरूरत नहीं थी, क्योंकि उसका विषय उसके दूसरे ही अधिकारमें बन्ध-विषयका स्पष्ट भी इनमें आगया है। ये गाथाएँ भी उक्त भावसंग्रहउल्लेख है। ये गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें देवसेनके भाव- की हैं और वहींसे उठाकर कर्मप्रकृतिमें रक्खी गई संग्रहसे उठाकर रक्खी गई मालूम होती हैं, जिसमें मालूम होती हैं । भावसंग्रहमें ये ३३१ से ३३८ ये नं० ३२५से ३२९ तक पाई जाती हैं। नम्बरकी गाथाएं हैं। (३) २१वीं और २२वीं गाथाओंके मध्यमें (४) गो० कर्मकाण्डकी २३वी गाथाके अनन्तर 'णाणावरणं कम्म, दंसणावरणं पुण, महलित्त. कर्मप्रकृतिमें 'अहिमुहणियमियबोहण, अत्थादो खग्गसरिसं, मोहेइ मोहणीयं, आउं चउप्पयारं, चित्तं अत्यंतर, अवहीदि त्ति ओही, चितियमचितियं वा, पड व विचित्तं,गोदं कुलालसरिमं,जह भंडयारिपुरिसो' संपुरणं तु समग्गं, मदिसुदोहीमणपज्जव, जं इन आठ गाथााकी स्थिति भी सङ्गत मालूम नहीं सामरण गहण, चक्खूण ज पयासइ, परमाणुश्रादिया१ “पयडिट्ठदिअणुभागं पएमबंधो परा कहियो कर्म इ, बहुविहबहुप्पयारा, चक्खू य चक्खाही, अह प्रकृतिकी अनेक प्रतियोंमें यही पाठ पाया जाता है. जो थीणगिद्धिणिद्दा' य १२ गाथाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें टीक जान पड़ता है; क्योंकि 'जीवपएसक्के इत्यादि कर्मकाण्डकं प्रथम अधिकारमें त्रुटित बतलाया जाता पूर्वकी तीन गाथानोंमें प्रदेशबन्धका ही कथन है है । इनमसे मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों और चक्षज्ञानभूषणने टीकामें इसका अर्थ देते हुए लिखा है:- दशनादि चार दशनांके लक्षणोंकी जो ९ गाथाएँ "त चत्वारो भेदाः के ? प्रकृतिस्थित्यनुभागाः प्रदेशबन्धश्च है वे उक्त अधिकारकी कथनशैली और विषयप्रतिअयभेदः पुरा कथितः ।" अतः अनेकान्तकी उक्त किरण पादनकी दृष्टिस उसका कोई आवश्यक अङ्ग मालूम ८-६ में जो ‘पयडिहिदिअणुभागप्पएसबंधो ह चरविडो नहीं होतीं-खासकर उस हालतमें जब कि वे ग्रन्थके कहियो' पाठ दिया है वह ठीक मालम नहीं होता-उसके पूर्वाध जीवकाण्डमें पहलेसे आचुकी है और उसमें पूर्वाधमें 'चउभेयो' पदके होते हुए उत्तरार्धम 'चउविहो' १ देखो, माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित भावपदके द्वारा उमकी पुनरावृत्ति खटकती भी है । संग्रहादि' ग्रन्थ ।

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