________________
किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
३१३
के इस 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकरमें नहीं पाई अर्थात यह प्रस्ताव किया जाय कि 'ये ३४ गाथाएँ जातीं, और जिनके विषयमें पं० परमानन्दजी शास्त्री- चूँकि कर्मप्रकृतिमें पाई जाती हैं, जो कि वास्तवमें का यह कहना है कि वे सब कर्मकाण्डकी अंगभूत कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार है और 'प्रथम अंश' आवश्यक और सङ्गत गाथाएँ हैं, जो किसी समय आदिरूपसे उल्लेखित भी मिलता है, इसलिये इन्हें भी लेखकोंकी कृपासे कर्मकाण्डसे छूट गई अथवा उससे वर्तमान कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारमें जुदी पड़ गई हैं, और इसलिये उन्हें फिरसे कर्म- त्रुटित समझा जाकर शामिल किया जाय' तो यह काण्डमें यथास्थान शामिल करके उसकी उस त्रुटि- प्रस्ताव बिल्कुल ही असङ्गत होगा; क्योंकि ये गाथाएँ को पूरा करना चाहिये जिसके कारण वह अधूरा कमकाण्डके प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारके साथ किसी और लडूंरा जान पड़ता है।
तरह भी सङ्गत नहीं हैं और साथ ही उसमें अनावश्यक ___ जहाँ तक मैंने उन विवादस्थ गाथाओं पर, उनके भी हैं । वास्तवमें ये गाथाएँ प्रकृतिसमुत्कीर्तनसे नहीं कमकाण्डका आवश्यक तथा सङ्गत अङ्ग होने, किन्तु स्थिति-बन्धादिकसे सम्बन्ध रखती हैं, जिनके कर्मकाण्डसे किसी समय छुटकर कर्म-प्रकृतिके रूपमें लिये ग्रन्थकारने ग्रन्थमें द्वितीयादि अलग अधिकारोंअलग पड़जाने और कर्मकाण्डमें उनके पुनः प्रवेश की सृष्टि की है । और इसलिये एक योग्य ग्रन्थकारके कराने आदिके प्रश्नोंको लेकर, विचार किया है लिये यह संभव नहीं कि जिन गाथाओंको वह मुझे प्रथम तो यह मालूम नहीं हो सका कि 'कर्म- अधिकृत अधिकारमें रक्खे उन्हें व्यर्थ ही अनधिकृत प्रकृति' प्रकरण और 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार अधिकारमें भी डाल देवे । इसके सिवाय, कर्मप्रकृतिदोनोंको एक कैसे समझ लिया गया है, जिसके में, जिसे गोम्मटसारके कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार आधारपर एकमें जो गाथाएँ अधिक हैं उन्हें दूसरेमें समझा और बतलाया जाता है, उक्त गाथाओंका भी शामिल करानका प्रस्ताव रक्खा गया है: जब कि देना प्रारम्भ करनेसे पहले ही 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' के कर्मप्रकृतिमें प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारसे ७५ गाथाएँ कथनका समाप्त कर दिया है-लिख दिया है अधिक ही नहीं बल्कि उसकी ३५ गाथाएँ (नं.५ "इति पर्याडसमुक्त्तिणं समत्तं ॥" और उसके से ८६ तक) कम भी हैं, जिन्हें कर्मप्रकृतिम शामिल अनन्तर तथा 'तीमं कोडाकोडी' इत्यादि गाथाको करनेके लिये नहीं कहा गया, और इसी तरह देनेसे पूर्व टीकाकार ज्ञानभूषणने साफ लिखा है :२३ गाथाएँ कर्मकाण्डके द्वितीय अधिकारकी “इति प्रकृतीनां समुत्कर्तिनं समाप्तं ।। अथ प्रकृति(नं० १२७ से १४५, १६३, १८०, १८१, १८४) तथा स्वरूपं व्याख्याय स्थितिबन्धमनुपक्रमन्नादौ मूल११ गाथाएँ छठे अधिकारकी (नं० ८०० से ८१० तक) भी उसमें और अधिक पाई जाती हैं, जिन्हें पण्डित प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धमाह ।" परमानन्दजीने अधिकार-भेदस गाथा-संख्याके कुछ इससे 'कर्मप्रकृति' की स्थिति बहुत स्पष्ट हो गलत उल्लेखके माथ स्वयं स्वीकार किया है, परन्तु जाती है और वह गोम्मटसारकं कर्मकाण्डका प्रथम प्रकृतिसमुत्कीतन अधिकारमें उन्हें शामिल करनका अधिकार न होकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही ठहरता है, सुझाव नहीं रक्खा गया। दोनों एक होनेकी दृष्टिसे जिसमें प्रकृतिसमुत्कीर्तन' को ही नहीं किन्तु प्रदेशयदि एककी कमीको दुमरेसे पूरा किया जाय और बन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कथनोंको भी इस तरह 'प्रकृतिसमुत्कातन' अधिकारकी उक्त ३५ अपनी रुचिके अनुसार संकलित किया गया है और गाथाओंको कमप्रतिमें शामिल कराने के साथ-साथ जिसका संकलन गोम्मटसारक निमाणसे किसी कमप्रकृतिकी उक्त ३४ (२३+११) गाथाओंको भी समय बादको हुआ जान पड़ता है। उसे लोटा प्रकृतिसमुत्कीतनमें शामिल कगनके लिये कहा जाय कर्मकाण्ड समझना चाहिये । इसीसे उक्त टीकाकारने