Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 458
________________ ३१२ अनेकान्त [ वर्ष ८ सार भाषा टीकामें भी) ये सब सूत्र प्रायः' ज्यों-के- ठीक घटित किया जा सकता है-इनके अथवा इन त्यों अनुवादके रूपमें पाये जाते हैं, जिसका एक जैसे दूसरे पद-वाक्योंके अभावमें नहीं । इस विषयके नमूना २५वीं गाथाके साथ पाये जाने वाले सूत्रोंका विशेष प्रदर्शन एवं स्पष्टीकरणको में लेखक बढ़ जाने इस प्रकार है: के भयसे ही नहीं, किन्तु वर्तमानमें अनावश्यक ____ "वेदनीयं द्विविधं सातावेदनीयमसातावेदनीयं समझकर भी, यहां छोड़े देता हूँ-विज्ञपाठक उसका चेति । मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्र- अनुभव स्वतः कर सकते हैं; क्योंकि मैं समझता हूँ इस मोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बंध-विवक्षया विषयमें ऊपर जो कुछ लिखा गया और विवेचन मिथ्यात्वमेकविधं उदयं सत्व प्रतीत्य मिथ्यात्वं किया गया है वह सब इस बातके लिये पर्याप्त है सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतिश्चेति त्रिविधं ।" कि ये सब सूत्र मूलग्रन्थ के अंगभूत हैं। और इसलिए और इससे इन सूत्रोंके मूल ग्रन्थका अङ्ग होनेकी इन्हें ग्रन्थमें यथास्थान गाथाओंवाले टाइपमें ही पुनः की सुदृढ़ हो जाती है। वस्तुतः इन सूत्रोंकी स्थापित करके ग्रन्थकं प्रकृत अधिकारकी त्रुटिको दूर मौजूदगीमें ही अगली गाथाओंके भी कितने ही करना चाहिये। शब्दों, पद-वाक्यों अथवा सांकेतिक प्रयोगोंका अर्थ अब रही उन ७५ गाथाओंकी बात, जो 'कर्म - प्रकृति' प्रकरणम तो पाई जाती हैं किन्तु गोम्मटसार१ 'प्रायः' शब्दके प्रयोगका यहाँ प्राशय इतना ही है कि जिमका प्रारम्भ 'ज्ञानावरणादीनां यथासंख्यमुत्तरभेदाः दो एक जगह थोड़ासा भेद भी पाया जाता है, वह या पचनव' इत्यादि रूपसे किया गया है और इसलिये तो अनुवादादिकी ग़लती अथवा अनुवाद पद्धतिसे मूलकों के नाम-विषयक प्रथम सूत्रके ('तत्थ' शब्दसम्बन्ध रखता है अथवा उसे सम्पादनकी ग़लती सहित) अनुवादको छोड़ दिया है। जब कि पं० टोडरमल्लसमझना चाहिये । सम्पादनकी ग़लतीका एक स्पष्ट जीकी टीकामें उसका अनुवाद किया गया है और उसमें उदाहरण २२वीं गाथा-टीकाके साथ पाये जाने वाले ज्ञानावरणीय ग्रादि कोंके नाम देकर उन्हें "पाठ निम्न सूत्रमें उपलब्ध होता है-- मूल प्रकृति" प्रकट किया है, जो कि मंगत है और इस "दर्शनावरणीयं नवविधं स्त्यानगृद्धि निद्रा निद्रानिद्रा बातको सूचित करता है कि उक्त प्रथम सूत्रम या तो प्रचला - प्रचलाप्रचला - चनुरक्षरवधिदर्शनावरणीयं उक प्राशयका कोई पद त्रुटित है अथवा 'मोहणीयं' केवलदर्शनावरणीयं चेति ।” पटकी तरह उद्धृत होनेसे रहगया है। इसके सिवाय, इसमें स्त्यानगृद्धिके बाद दो हाइफनों (-) के माध्यमें 'शरीरबन्धन' नामकमके पांच भेदोका जो सूत्र २७वीं जो 'निद्रा' को रक्खा है उसे उस प्रकार वहां न रखकर गाथाके पूर्व पापा जाता है उसे टीकामें २७ वी गाथा 'प्रचलाप्रचला' के मध्यमें रखना चाहिये था पार इम के अनन्तर पाये जाने वाले मूत्रों में प्रथम रक्खा है। 'प्रचलाप्रचला' के पूर्व में जो हाइफन है उसे निकाल देना और इमस 'शरीरबन्धन' नामककर्मके जो १५ भेद होते चाहिये था, तभी मूलसूत्रके साथ और ग्रन्थकी अगली थ व 'शरीर' नामकर्मके १५ भेद होजाते हैं, जो कि एक तीन गाथाअोंके साथ इसकी संगति ठीक बैट सकती सैद्धान्तिक ग़लती है और टीकाकार-द्वारा उक्त सूत्रको थी। पं० टोडरमल्लजीकी भाषा टीकामें मूलसूत्रके नियत स्थानपर न रखने के कारण २७वीं गाथाके अर्थ अनुरूप ही अनुवाद किया गया है। अनुवाद-पद्धतिका में घटित हुई है; क्योंकि पटवण्डागममें भी एक नमूना ऊपर उद्धृत मोहनीय-कर्म-विषयक सूत्रमें 'अोरालिय श्रोगलिय-शरीरबंधो' इत्यादि रूपसे पाया जाता है, जिसमें 'एकविध' र 'त्रिविध' पदों- १५ भेद शरीरबन्धके ही दिये हैं और उन्हें देकर को थोड़ा-सा स्थानान्तरित करके रक्खा गया है। और श्रीवीरसेनस्वामीने धवला-टीकामें साफ लिखा हैदूसरा नमूना २२वीं गाथाकी टीकामें उपलब्ध होता है, "एमो पगणारसविहो बंधो सो सरोरबंधी त्ति घेत्तब्वो।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513