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अनेकान्त
[ वर्ष
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' (यदि हेत्वपेक्षि-स्वभाव के साथ समानरूप माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि जो चित्त उपादान- उपादेय-भावको लिये हुए हैं-पूर्व पूर्वका चित्त जिनमें उत्तरोत्तरवर्ती चित्तका उपादान कारण हैवे ही एक सन्तानवर्ति-चित्त परस्पर में समानरूप हैं और उन्हींके कारण कार्य-भाव घटित होता हैसन्तानान्तरवर्ति-चित्तोंके नहीं, तो इसमें यह विकल्प उत्पन्न होता है कि उत्तरवर्ती-चित्त उत्पन्न और सत् होकर अपने हेतुकी अपेक्षा करता है या अनुत्पन्न और असत होकर । प्रथम पक्ष तो बनता नहीं; क्योंकि सत्के सर्वथा निराशंसत्व (वक्तव्यपना) माननेसे उसे हेत्वपेक्षरूपमें नहीं कहा जा सकता । और उत्पन्न के हेत्वपेक्षत्वका विरोध है जो उत्पन्न हो चुका वह हेतुकी अपेक्षा नहीं रखता। दूसरा पक्ष माननेपर) जो (कार्यचित्त) असत् है - उत्पत्ति के पूर्व में जिसका सर्वथा अभाव है-वह आकाशकं पुष्प- समान हेत्वपेक्ष नहीं देखा जाता और न सिद्ध होता है; क्योंकि कोई भी असत्पदार्थ हेत्वपेक्षके रूपमें वादी प्रतिवादी दोनोंमेंसे किसी भी द्वारा सिद्ध (मान्य) नहीं हैं, जिससे उत्तरोत्तर चित्तको अनुत्पन्न होनेपर भी तद्धत्वपेक्ष मिद्ध किया जाता | हेतुकं अभाव में कैसे कोई एक सन्तानवर्ती चित्तक्षण हेत्वपेक्षत्वके साथ समानरूप सिद्ध किये जा सकते हैं, जिससे उनक उपादान- उपादेयरूपका कारण-कार्य-भाव घटित होसके ? नहीं किये जा सकते । वास्य-वासक-भावरूप हेतु भी नहीं बनता; क्योंकि एक सन्तानवर्ति-क्षरणविनश्वर - निरन्वय चित्तक्षणों में, भिन्नमन्तानवर्ति-चित्तक्षणोंकी तरह, वासनाका सम्भव नहीं होता ।'
वाsस्ति हेतु: क्षणिकात्मवादे न सन्नसन्वा विभवादकस्मात् । सन्तान - भिन्न-क्षणयोरभावात् ||१३||
नाशोदय कक्षरता च दुष्टा
(परमार्थ से तो) क्षणिकात्मवाद में हेतु बनता ही नहीं। क्योंकि हेतुको यदि सतरूप माना जायसतरूप ही पूर्वचित्तक्षण उत्तरचित्तक्षणका हेतु है ऐसा स्वीकार किया जाय तो इसमें विभवका प्रसङ्ग आता है। अर्थात एक क्षणवर्तीचित्त में चित्तान्तरकी उत्पत्ति होनेपर उस चित्तान्तर के कार्यकी भी उसी क्षण उत्पत्ति होगी, और इस तरह सकलचित्त और चैत्तक्षणोंक एकक्षणवती होजानेपर सकल जगत-व्यापी चित्तप्रकारोंकी युगपन सिद्धि ठहरेगी। और ऐसा होनेसे, जिसे क्षणिक कहा जाता है वह विभुत्वरूप ही है- सर्व व्यापक है - यह कैसे निवारण किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता। इसके सिवाय, एकक्षणवर्ती सतचित्तके पूर्वकाल तथा उत्तरकालमें जगत्चित्त शून्य ठहरता है और सन्तान - निर्वारण-रूप जो विभवमोक्ष है वह सबके अनुपाय (बिना प्रयत्नकं ही) सिद्ध होता है, और इस लिये सन हेतु नहीं बनता । (इस दोष से बचने के लिये) यदि हेतुको अमन ही कहा जाय तो अम्मान-बिना किसी कार एक ही - कार्योत्पतिका प्रसङ्ग आएगा । और इस लिये असत हेतु भी नहीं बनता ।'
' (यदि आकस्मिक कार्योत्पत्तिकं दोषसे बचने के लिये कारणके नाशके अनन्तर दूसरे क्षणमं कार्यका उदय उत्पादन मानकर नाश और उत्पादको एक क्षरणवर्ती माना जाय अर्थात यह कहा जाय कि जिसका नाश ही कार्यका उत्पाद है वह उस कार्यका हेतु हैं तो यह भी नहीं बनता; क्योंकि) सन्तानके भिन्न क्षणोंमें नाश और उदयकी एक क्षरणताका अभाव होनेसे नाशादयैकक्षणतारूप युक्ति संदीप है - जैसे सुत सन्तानमें जाग्रत चित्तका जो नाश- क्षण (-काल ) है वही प्रबुद्ध चित्तका उदय-क्षणा नहीं है, दोनों में अनेकक्षणरूप मुहूर्ताद कालका व्यवधान है, और इसलिये जाग्रत चित्तको प्रबुद्ध चित्तका हेतु नहीं कहा जा सकता । अतः उक्त संदीप युक्तिकं आधारपर आकस्मिक कार्योत्पत्तिके दोषसे नहीं बचा जा सकता ।' कृत-प्रणाशाऽकृत-कर्म-भोगौ स्यातामसञ्च तित-कर्म च स्यात् । आकस्मिकेऽर्थे प्रलय-स्वभावे मार्गो न युक्तो वधकश्च न स्यात् || १४ ||