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किरण -९
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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निर्माण करानेके कारण ही चामुण्डराय 'गोम्मट' जिमका उल्लेख आपने इस प्रन्थमें ही नहीं किन्तु तथा 'गोम्मटराय नामसे प्रसिद्धको प्राप्त हुए है। अपने दूसरे ग्रन्थों-त्रिलोकसार और लब्धिसारमें भी चुनांचे पं० गोविन्द पै जैसे कुछ विद्वानोंने इमी किया है। साथ ही, वीरनन्दी तथा इन्द्रनन्दीको भी बातको प्रकारान्तरसे पुष्ट करनेका यत्न भी किया है; आपने अपना गुरु लिखा है' । ये वीरनन्दी वे ही परन्तु डॉक्टर ए. एन. उपाध्येने अपने 'गोम्मट' जान पड़ते हैं जो 'चन्द्रप्रभ-चरित्र' के कर्ता हैं; नामक लेखमें' उनकी सब युक्तियांका निगकरण क्योंकि उन्होंने अपनेको अभयनन्दीका ही शिष्य करते हुए, इस बातको बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि लिखा है । परन्तु ये इन्द्रनन्दी कौनसे हैं ? इसके 'गोम्मट' बाहुबलीका नाम न होकर चामुण्डरायका विपयमें निश्चय-पूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा ही दृमरा नाम था और उनके इस नामके कारण ही मकता; क्योंकि इन्द्रनन्दी नामके अनेक प्राचार्य हुए बाहुबलीकी मृति 'गोम्मटेश्वर' जैसे नामोंसे प्रसिद्धि- हैं-जैसे १ छेदपिंड नामक प्रायश्चित्त-शास्त्रके कर्ता, को प्रान हुई है। इस मति के निर्माणसे पहले बाहबलीके २ श्रृतावतारके कर्ता, ३ ज्वालामालिनीकल्पके कता. लिय गोम्मट' नामकी कहीं से भी उपलब्धि नहीं ४ नीतिमार अथवा समयभूषणके कर्ता, ५ संहिताहोता । बादको कारकल आदि में बनी हुई मूर्तियोंको के कर्ता। इनमेंसे पिछले दो तो हो नहीं सकते; जो गोम्मटेश्वर' जैमा नाम दिया गया है उसका क्योंकि नीतिमारके कर्ताने उन आचार्यों की सूची में
रण इतना ही जान पड़ना है कि वे श्रवणबेलगोल- जिनके रचे हुए शास्त्र प्रमाण है नमिचन्द्रका भी नाम की इम मृतिकी नकल-मात्र हैं और इसलिये दिया है, इमलिये वे नेमिचन्द्रकं बाद हुए हैं और श्रवणबल्गोलकी मृतिक लिये जा नाम प्रसिद्ध हो इन्द्रनन्दि संहितामें वसुनन्दीका भी नामोल्लेख है, गया था वही उनको भी दिया जाने लगा। अस्तु । जिनका समय विक्रमकी प्रायः १२वीं शताब्दी है
चामुण्डायन अपना मठ शलाकापुरुषोंका और इसलिये वे भी नेमिचन्द्र के बाद हुए हैं। शेष मेंपुराण-ग्रन्थ, जिसे 'चामुण्डरायपुराण' भी कहते हैं से प्रथम दो ग्रन्थोंके कर्ताओंने न तो अपने गुरुका शक संवत् १०८ (वि. मं० १.३५) में बनाफर ममाप्त ५ जम्म य पायपसाएगातसंमार जल हिमुत्तिगणो। किया है, और इमलिय उनके लिय निमित ग.म्मटमार वरिंदरणदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुर ॥४३६।। का मुनिश्चित समय विक्रमको ११वीं शताब्दी है। गामिकण अभयणंदि मुदसागरपारगिंदणंदिगुरु । ग्रन्थकार और उनके गुरु वरवीरणदिणाहं पयडीण पच्चयं वोच्छ।कर्मकाण्ड ७८५||
इदि ण मिचद मुणिणा अप्पमुदेणभयणदिवच्छेण । गोम्मटमार का प्राचार्य नमिच, 'मिद्धान
हो तिलोयसारो खमनु त बहमुदाइग्यिात्रि०१०१८|| चक्रवर्ती कहलात थे। चक्रवर्ती जिम प्रकार चक्रस
पारदरणदिवच्छेगप्पमुदेणमयणदि-मिम्मेण । छह खगड पृथ्वी की निविघ्न साधना करके उसे
दसण चरित नी सुसूयिया णमिचं देण लब्धि० ४४८ स्वाधीन बनाकर --चक्रवर्तिपदको प्राप्त होता है उसी
२ मुनिजननुतपादः प्रास्तमिश्याप्रवादः, सकलगुणसमृद्धस्तप्रकार मति-चक्रसे पटवण्डागमकी माधना करके
न्य शिष्यः प्रमिद्धः । अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी श्राप सिद्धान्त-चक्रवतीक पदको प्राप्त हुए थे, और
स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलाकैकबन्धुः ।।३।। इमका उल्लम्ब उन्होंने स्वय कमकाण्डकी गाथा ३९७
भव्याम्भोजवियोधनाद्यतमतभाम्वत्ममानत्विषः म किया है। श्राप अभयनन्दी श्राचायक शिष्य थे.
शिप्यस्तस्य गुणाकरस्य मुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभत् । १ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ कि० ३, ४ पृ० २२६, २६३ । म्वाधीनाग्विल वाङमयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः मतां २जह चक्कण य चक्की छविंडं माहियं अविग्धण । समत्सु व्यजयन्त यस्य जायनी वाचः कुतकाङ कुशाः॥४॥ तह मइ चक्कण मथा छक्वडं माहिथं सम्मं ॥३६७||
--चन्द्र प्रभचरित-प्रशस्ति ।