Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 453
________________ किरण ८-९] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र परसे उसकी गाथा-संख्या १६० जानी जाती है तथा कुछ अंशोंको उद्धृत करके यह स्पष्ट करनेका यत्न ग्रन्थ-कर्ताका नाम 'नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती' भी किया गया कि उनमें ग्रन्थका कर्ता 'नेमिचन्द्रउपलब्ध होता है। उसमें ७५ गाथाएँ ऐसी हैं जो इस सिद्धान्ती' 'नेमिचन्द्र-सिद्धान्तदेव' ही नहीं, किन्तु अधिकारमें नहीं पाई जातीं। उन बढ़ी हुई गाथाओंमें- 'नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती' भी लिखा है और ग्रन्थसे कुछ परसे उन अंशोंकी पूर्ति हो जाती है जो को टीकामें 'कर्मकाण्ड' तथा टिप्पणमें 'कर्मकाण्डका त्रुटित समझे जाते हैं और शेष परसे विशेष कथनों प्रथम अंश' सूचित किया है। साथही, शाहगढ़ की उपलब्धि होती है । और इसलिये पं० परमानन्द- जि० सागरके सिंघईजीके मन्दिरकी एक ऐसी जीर्णजी शास्त्रीने ‘गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति' शीर्ण प्रतिका भी उल्लेख किया है जिसमें कर्मकाण्डके नामका एक लेख लिखा, जो अनेकान्त वर्ष ३ किरण शुरूके दो अधिकार तो पूरे हैं और तीसरे अधिकार८-९ में प्रकाशित हुआ है और उसके द्वारा त्रुटियोंको की ४० मेंसे २५ गाथाएँ हैं, शेष ग्रन्थ संभवतः तथा कर्मप्रकृतिकी गाथाओं परसे उनकी पूर्तिको दिख- अपनी अतिजीणताके कारण टूट-टाट कर नष्ट लाते हुए यह प्रेरणा की कि कर्मप्रकृतिकी उन बढ़ी हुई हुआ जान पड़ता है । इसके प्रथम अधिकारमें वे ही आको कर्मकाण्डम शामिल करके उसकी जाट- १६० गाथाएँ पाई जाती है जो कमप्रकृतिम उपलब्ध पति कर लेनी चाहिये । यह लेख जहाँ पण्डित हैं और इस परसे यह घोषित किया गया कि कमकैलाशचन्द्रजी आदि अनेक विद्वानोंको पसन्द आया प्रकृतिकी जिन गाथाओंको कर्मकाण्डमें शामिल वहाँ प्रो० हीरालालजी एम० ए० आदि कुछ विद्वानों करनेका प्रस्ताव रकम्वा गया है वे पहलेसे कर्मकाण्डको पसन्द नहीं आया, और इसलिये प्रोफेसर की कुछ प्रतियोंमें शामिल हैं अथवा शामिल कर ली साहबने इसके विरोधमें पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री तथा गई हैं। इस लेखके प्रत्युत्तरमें प्रो० हीरालालजीने पं० हीरालालजी शास्त्रीक सहयोगमे एक लेख लिखा, एक दूसरा लेख और लिखा, जो 'गोम्मटसार-कर्मजो 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति पर विचार' नामसे काण्डकी त्रुटिपूर्ति-सम्बन्धी प्रकाश पर पुनः विचार' अनेकान्तके उसी वर्षकी किरण ११ में प्रकट हुआ नामसे जैनसन्देश भाग ४ के अङ्क ३२ श्रादिमें है और जिसमें यह बतलाया गया है कि 'उन्हें कर्म- प्रकाशित हुआ है और जिसमें अपनी उन्हीं बातोंको काण्ड अधूरा मालूम नहीं होता, न उससे उतनी पुष्ट करनेका यत्न किया गया है और गोम्मटसार गाथाओंक छूट जाने व दूर पड़ जाने की संभावना तथा कमप्रकृतिके एक-कतृत्व पर अपना सन्देह जंचती है और न गोम्मटसारके कर्ता-द्वारा ही कर्म- कायम रक्खा गया है; परन्तु कल्पना अथवा प्रतिके रचित होनेके कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर संभावनाके सिवाय सन्देहका कोई खास कारण होते हैं, ऐसी अवस्थामें उन गाथाओंको कर्मकाण्डमें व्यक्त नहीं किया गया। शामिल कर देनेका प्रस्ताव बड़ा साहसिक प्रतीत टिपूर्ति-सम्बन्धी यह चचा जब चल रही थी होता है।' इमके उत्तरमें पं० परमानन्दजीने दूसरा तब उससे प्रभावित होकर पं० लोकनाथजी शास्त्रीने लेख लिखा, जो अनेकान्तकी अगली १२वी किरणमें मडबिद्री सिद्धान्त-मन्दिरके शास्त्र-भण्डारमें, जहाँ 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति के विचार पर प्रकाश' धवलादिक सिद्धान्तग्रन्थोंकी मूल-प्रतियाँ मौजूद हैं, नामसे प्रकाशित हुआ है और जिसमें अधिकारके गोम्मटसारकी खोज की थी और उस खोजके नतीजेअधूरेपनको कुछ और स्पष्ट किया मया, से मुझे ३० दिसम्बर सन १९४० को सूचित करनेकी गाथाओंके छूटनेकी संभावनाके विरोध- कृपा की थी, जिसके लिये मैं उनका बहुत आभारी हूँ। का परिहार करते हुए प्रकारान्तरसे उनके छूटनेकी उनकी उस सूचना परसे मालूम होता है कि उक्त मंभावनाको व्यक्त किया गया और टीका-टिप्पणके शास्त्रभंडारमें गोम्मटसारकं जीवकाण्ड और कर्म

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