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अनेकान्त
काडकी मूल प्रति त्रिलोकसार और लब्धिसारक्षपणासार - सहित ताडपत्रों पर मौजूद है । पत्रसंख्या जीवकाण्डकी ३८, कर्मकाण्डकी ५३, त्रिलोकसारकी ५१ और लब्धिसार- क्षपणासारकी ४१ है । ये सब ग्रन्थ पूर्ण हैं और इनकी पद्य संख्या क्रमशः ७३०, ८७२, १०१८, ८२० है' । ताडपत्रोंकी लम्बाई दो फुट दो इञ्च और चौड़ाई दो इन है । लिपि 'प्राचीन कन्नड' है, और उसके विषयमें शास्त्रीजीने लिखा था
"ये चारों ही ग्रन्थोंमें लिपि बहुत सुन्दर एवं धवलादि सिद्धान्तोंकी लिपिके समान है । अतएव बहुत प्राचीन हैं । ये भी सिद्धान्त-लिपि-कालीन होना चाहियें । " साथ ही, यह भी लिखा था कि "कर्मकाण्ड में इस समय विवादस्थ गाथाएँ ( इस प्रतिमें) सूत्र रूप में हैं" और वे सूत्र कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारकी जिस-जिस गाथा के बाद मूल रूप में पाये जाते हैं उसकी सूचना साथमें देते हुए उनकी एक नकल भी उतार कर उन्होंने भेजी थी । इस सूचनादिको लेकर मैंने उस समय ' त्रुटिपूर्ति-विषयक नई खोज' नामका एक लेख लिखना प्रारम्भ भी किया था परन्तु समयाभावादि कुछ कारणों के वश वह पूरा नहीं हो सका और फिर दोनों विद्वानोंकी ओरसे चर्चा समाप्त हो गई, इससे उसका लिखना रह ही गया । आज मैं उन सूत्रामस आदिके पाँच स्थलांके सूत्रोंको, स्थल- विपयक सूचनादिके साथ नमृनक तौर पर यहाँ पर दे देना चाहता हूँ, जिससे पाठकोंको उक्त अधिकारकी त्रुटि पूर्ति के विषयमें विशेष विचार करनेका अवसर मिल सके :--
१ रामचन्द्र जैनशास्त्रमाला प्रकाशित जीवकाण्ड ७३३. कर्मकाण्ड ६०२ र लब्धिसार नृपणासारमे ६४६ गाथा संख्या पाई जाती है। मुद्रित पतियोंमें कान कान गाथाएँ बढ़ी हुई तथा घटी हुई है उनका लेखा यदि उक्त शास्त्रीजी प्रकट करें तो बहुत अच्छा हो ।
[ वर्ष
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आठ
कर्मकाण्डकी २२वीं गाथामें ज्ञानावरणादि मूल कर्मप्रकृतियोंकी उत्तर कर्मप्रकृतिसंख्याका ही क्रमशः निर्देश है— उत्तरप्रकृतियोंके नामादिक नहीं दिये और न आगे ही संख्यानुसार अथवा संख्या की सूचनाके साथ उनके नाम दिये हैं । २३वीं गाथा में क्रमप्राप्त ज्ञानावरणकी ५ प्रकृतियों का कोई नामोल्लेख न करके और न उस विषय की कोई सूचना करके दर्शनावरणकी ९ प्रकृतियोंमेंसे स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियोंके कार्यका निर्देश करना प्रारम्भ किया गया है, जो २५वीं गाथा तक चलता रहा है। इन दोनों गाथाओंके मध्य में निम्न गद्यसूत्र पाये जाते हैं, जिनमें ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंका संख्या के निर्देशसहित स्पष्ट उल्लेख है और जिनसे दोनों गाथाओं का सम्बन्ध ठीक जुड़ जाता है। इनमें से प्रत्येक सूत्र 'चेइ' अथवा 'चेदि ' पर समाप्त होता है
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“णाणावरणीयं दंसणावरणीयं वेदणीयं [मोहणीयं] आउगं ग्रामं गोदं अंत्तरायं चेइ । तत्थ णाणावरणीयं पंचविहं अभिबोहिय-सुद-ओहि -मण्पज्जव-गाणावरणीयं केवलणारणावरणीयं चेइ । इंसगावरणीयं गावविहं श्रीगागिद्धि गिद्दा गिद्दा पयलापयला गिद्दा य पयला य चक्खु अचत्रखु - हिदंसणा वरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेइ ।”
में
इन सूत्रोंकी उपस्थिति में ही अगली तीन गाथाओंजो स्त्यानगृद्धिश्रादिका क्रमशः निर्देश हैं वह सङ्गत बैठता है, अन्यथा तत्त्वार्थसूत्र तथा पट्खण्डागमकी पर्याडसमुत्तिरण - चूलियामें जब उनका भिन्नक्रम पाया जाता है तब उनके उस क्रमका कोई व्यवस्थापक नहीं रहता । अतः २३, २४, २५ नम्बरकी गाथाओं के पूर्व इन सूत्रोंकी स्थिति आवश्यक जान पड़ती है ।
२५वीं गाथा में दर्शनावरणीय कर्मकी ९ प्रकृतियों में 'प्रचला' प्रकृतिके उदयजन्य कार्यका निर्देश है । इसके बाद क्रम प्राप्त वेदनीय तथा