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अनेकान्त
[ वर्ष ८
खुले वातावरणमें सांस ले सकेंगे, यथेच्छ रूपमें चल- हुए नज़र आते थे और उनकी सारे देशमें एक बाढ़ फिर सकेंगे, खुली आवाजसे बोल सकेंगे, बिना सी आगई थी। जहाँ कहीं भी किसी खास स्थानपर संकोचके लिख-पढ़ सकेंगे, बिना किसी रोक-टोकके समूहके मध्यमें झण्डेको लहरानेकी रस्म अदा की गई अपनी उन्नति एवं प्रगतिक साधनोंको जुटा सकेंगे वहाँ हिन्दू , गुमलमान, मिख, जैन, पारमी और ईसाई
और दूसरोंके सामने ऊँचा मुख करके खड़े हो यादि सभीन मिलकर बिना किसी भेद-भावक सकेंगे। ऐसी स्वतन्त्रता किसे प्यारी नहीं होगी? कौन भण्डेका गुणगान किया, उसे सिर झुकाकर उसका अभिनन्दन नहीं करेगा ? कौन उसे पाकर प्रणाम किया और सलामी दी। उस वक्तका यह प्रसन्न नहीं होगा ? और कौन उसके लिये आनन्दो- सार्वजनिक और सार्वभौमिक मूर्तिपूजाका दृश्य बड़ा त्सव नहीं मनाएगा?
ही सुन्दर जान पड़ता था । और हृदयमें रह-रहकर यही वजह है कि उस दिन १५ अगस्तको स्व- ये विचार तरङ्गित होरहे थे कि जो लोग मूर्तिपूजाके तन्त्रता-दिवस मनानेके लिये जगह-जगह-नगर- सर्वथा विरोधी हैं-उसमें कृत्रिमता और जड़ता जैसे नगर और ग्रामग्राममें-जन-समृह उत्सवकं लिय उमड़ दोष देकर उसका निपंध किया करते हैं वे समयपड़ा था, जनतामें एक अभूतपूर्व उत्माह दिखाई पर इस बातको भूल जाते हैं कि 'हम भी किमी न पड़ता था, लम्बे-लम्बे जलूस निकाले गये थे, तरह- किसी रूपमें मूर्तिपूजक हैं'; क्योंकि राष्ट्रका झण्डा भी, तरहक बाजे बज रहे थे, नेताओं और शहीदोंकी जिसकी वे उपामना करते हैं, एक प्रकारकी जड़मूर्ति जयघोषके नारे लग रहे थे, बालकों को मिठाइयाँ है और राष्ट्रकं प्रतिनिधि नेताओं-द्वारा निर्मित होनस बंट रही थीं, कहीं कहीं दीन-दुःखित जनोंको अन्न- कृत्रिम भी है। परन्तु देवमूर्ति जिस प्रकार कुछ वस्त्र भी बाँट जारहे थे, घर-द्वार सरकारी इमारतें भावांकी प्रतीक होती है, जिनकी उसमें प्रतिष्टा की
और मन्दिर बाजारादिक मब मजाय गये थे, उनपर जाती है, उसी प्रकार यह राष्ट्रपताका भी उन राष्ट्रीय रोशनी की गई थी–दीपावलि मनाई गई थी और भावनाांकी प्रतीक है जिनकी कुछ रङ्गों तथा चिह्नों हजारो कैदी जलांस मुक्त होकर इन उत्सवाम भाग श्रादिक द्वारा इसम प्रतिष्ठा की गई है, और इसीसे ले रहे थे और अपने ननाओंकी इस भारी मफलनापर देवमृतिक अपमानकी तरह इस प्रतिष्ठित राष्ट्रमूर्तिके गर्व कर रहे थे और उन्हें हृदयमं धन्यवाद दे रहे थे। अपमानको भी इसका कोई उपासक सहन नहीं कर
इन उत्सवांकी सबसे बड़ी विशेषता भारतके सकता । इसी बातको लेकर 'झण्डेको सदा ऊंचा उस तिरङ्गे झण्डेकी थी, जिसका अशोकचक्र माथ रखने और प्राण देकर भी उसकी प्रतिष्ठाको बराबर नव-निर्माण हुआ है । घरघर, गलीगली और दुकान- कायम रखनेकी' सामूहिक तथा व्यक्तिगत प्रतिज्ञाएँ दुकानपर उसे फहराया गया था। कोई भी सरकारी कराई गई थीं। अतः झण्डेकी पूजा-वन्दना करने इमारत, सार्वजनिक संस्था और मन्दिर-मस्जिदकी वालोंको भूलकर भी मूर्तिपूजाका सर्वथा विरोध नहीं बिल्डिङ्ग ऐसी दिखाई नहीं पड़ती थी, जो इस करना चाहिये-वैसा करके वे अपना विरोध आप राष्ट्रीय पताकाको अपने सिरपर अथवा अपनी गाद- घटित करेंगे । उन्हें दूमरोंकी भावनाओंको भी में धारण किये हुए न हो । जलूसोंमें बहुत लोग समझना चाहिये और अनुचित आक्षेपादिकं द्वारा अपने-अपने हाथोंमें इस झण्डेको थामे हुए थे, जिन्हें किसी भी मर्मको नहीं दुखाना चाहिये; बल्कि ; हाथोंमें लेनके लिये झण्डे नहीं मिल सके व इस राष्ट्रीय झण्डेकी इस सामूहिक वन्दनासे पदार्थ-पाठ झण्डकी मूर्तियों अथवा चित्रांको अपनी-अपनी लेकर सबके साथ प्रेमका व्यवहार करना चाहिये टोपियों अथवा छातियोंपर धारण किये हुए थे । और कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिये जिससे जिधर देखो उधर ये राष्ट्रीय झण्डे ही भण्डे फहराते राष्ट्रकी एकता भङ्ग हो अथवा उसके हितको बाधा