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अनेकान्त
[ वर्ष ८
कारिका ९३में वीतराग केवलीमें सुख-दुखकी बाधाके अब हम उनकी मान्यताओंपर क्रमशः विचार निर्देशसे स्वीकार कर ली है।
करते हैं:
(१) यह ठीक है कि देवागमन आदि विभूतियाँ अपनी ओरसे फलित की गई आप्तमीमांसाकारकी ,
का और विग्रहादिमहोदय आदि आप्तके लक्षण नहीं हैं, इन मान्यताओंको देकर प्रो० सा० आगे लिखते हैं
है परन्तु उसका मतलब यह नहीं कि वे प्राप्तमें नहीं हैं, कि 'आप्तमीमांसाकारका यह मत है और वह सर्वथा प्राप्तमें वे बातें जरूर हैं-आप्तमीमांसाकारने उन्हें जैनसिद्धान्तसम्मत है। अकलङ्क, विद्यानन्द आदि स्वयम्भस्तोत्रगत 'प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो' इत्यादि टीकाकार जहाँ तक इन मर्यादाओंके भीतर अर्थका
पद्य नं० ७३ द्वारा भी स्पष्टतः स्वीकार किया है। स्पष्टीकरण करते है वहाँ तक तो वह सर्वथा निरापद लेकिन वे साधारण होनेस लक्षण नहीं हैं क्योंकि है। किन्तु यदि वे कहीं अाप्तमीमांसाकारके निर्देशसे
लक्षण असाधारण होता है । हमें खुशी है कि मेरे बाहर व कर्म-सिद्धान्तकी सुस्पष्ट व्यवस्थाओंके
मतानुसार प्रो० सा० ने क्षुत्पिपासादिके अभाव को विपरीत प्रतिपादन करते पाये जाते हैं तो हमें मानना विग्रहादिमहोदय (अतिशयों के अन्तर्गत ही स्वीकार ही पड़ेगा कि वे एक दूसरी ही विचारधारासे
कर लिया है। और यह विग्रहादिमहोदय लक्षण न प्रभावित है जिसका पूर्णतः समीकरण उक्त होनेपर भी उपलक्षण रूपसे आपमें विद्यमान है। व्यवस्थाओंसे नहीं होता।'
अतः इस मान्यतास प्रो० सा० को जो आप्तमें क्षुधा प्रो० सा के द्वारा फलित की गई उक्त मान्यतायें तृपाकी वेदनाका सद्भाव सिद्ध करना इष्ट था वह अब आप्तमीमांसाकारका मत है या नहीं, इसपर विचार सिद्ध नहीं हो सकता। करनेके पहले हम उनकी अन्तिम पंक्तियोंके सम्बन्धमें (२) आप्तका लक्षण निर्दापता है, इसमें कोई कुछ कह देना उचित समझते हैं। आपने अपने विवाद नहीं, उसके वचन युक्ति-शास्त्राविरोधी होते हैं पिछले एक लेखमें आप्तमीमांसाकारका तात्त्विक और वह सर्वज्ञ होता है तथा उसकी सर्वज्ञता दापों अभिप्राय समझनेके लिये दो उपायोंकी सूचना करते और आवरणोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिसे होती है, ये हुए लिखा था कि 'आप्तमीमांसाकारके पदोंका सब बातें भी ठीक हैं। आप्तमीमांसाकारके इम तात्त्विक अर्थ समझनेके हमें दो उपाय उपलब्ध हैं- अभिप्रायको हम भी पिछले लेखोंमें प्रकट कर एक तो स्वयं उसी ग्रन्थका मन्दर्भ और दूसरे उनका चुके हैं। टीकाकारों द्वारा स्पष्टीकरण ।' परन्तु उक्त पंक्तियोंसे (३, ४) जहाँ तक आपकी समझ है उस समझजान पड़ता है कि अब उनका टीकाकारोंके स्पष्टी- से आपने 'दोपावरणयोः हानिः' का अर्थ दिया है करणपर भी विश्वास नहीं रहा; क्योंकि वे उनके पक्ष- और इसलिये द्विवचनके प्रयोगसे यह कल्पना भी का समर्थन नहीं करते और इसलिये अब वे यह कर ली है कि वहाँ आप्तमीमांसाकारकी दृष्टिमें एक प्रतिपादन कर रहे हैं कि वे जो अर्थ कर रहे हैं वही ही दोप-अज्ञान और एक ही आवरण-ज्ञानावरण आप्तमीमांसाकारका मत है और उसीको जैनसिद्धांत प्रधान है-अन्य तो उन्हीं के साथ अविनाभूत हैं। बतलाते हैं। परन्तु यह सब स्वग्रहमान्य है और वे अत: उन्हीं दोका अभाव आप आसमें बतलाते है। किन्हीं मर्यादाओंसे बंधे हुए नहीं हैं। अतएव आज परन्तु इस कथनका आपके पूर्व कथनके साथ ही वे अकलंक, विद्यानन्द जैसे प्रामाणिक महान टीका- विरोध आता है । आप पहले 'दोषास्तावदज्ञान-रागकारोंके स्पष्टीकरणको सन्देहकी दृष्टिसे देखने लगे हैं द्वेषादय उक्ताः' आदि उद्धरण-प्रमाणके साथ लिख
और कल स्वयं प्राप्तमीमांसाकारके कथनको भी आये हैं कि 'यहाँ सर्वत्र उन्हीं ज्ञानावरणादि घातिया विपरीत बतला सकते हैं । अस्तु ।
कर्मों व तजन्य दोपोंका ग्रहण किया गया है।' यहाँ