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अनेकान्त
[ वर्ष ८
और सोढल विद्वानोंको आनन्ददायक, गुरुभक्त, उखड़वाकर देखा जाय तो उनमें शिलालेखादि भी तथा अरहंतदेवकी स्तुति करने वाला था और मिलनेकी सम्भावना है। जिसका शरीर विनयरूपी आभूषणसे अलंकृत था, (२) दूसरे श्रीधर वे हैं जिन्होंने श्रवन्तीके मुनि तथा बड़ा बुद्धिवान और धीरवीर था । और नट्टल- मुकमालका जीवन-परिचय अङ्कित किया है। इस साहु इन सबमें पुण्यात्मा, सुन्दर तथा जनवल्लभ था। चरित्रग्रन्थकी रचना भी अपभ्रंश भाषाके पद्घाड़िया कुलरूपी कमलोंका आकर, पापरूपी पांशु (रज) का छन्दमें हुई है। यह ग्रन्थ छह सन्धियोंमें समाप्त हुआ नाशक, तीर्थङ्करका प्रतिष्ठापक, बन्दीजनोंको दान है जिसकी श्लोक संख्या १२००के लगभग है। इस देने वाला, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त तथा सम्यक् ग्रन्थकी रचना विक्रम संवत् १२०८ मर्गासर कृष्णा दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप त्रिरत्न तीज सोमवारके दिन हुई है। आभूषणोंसे युक्त था, जो चतुर्विध संघको दान देनमें इन श्रीधरने इस प्रन्थमें अपना कोई परिचय सदा तत्पर था। साहू नट्टलने केवल पार्श्वनाथरित प्रस्तुत नहीं किया, जिससे यह निश्चय करना कठिन की रचना ही नहीं कराई थी; किन्तु उस बुद्धिवान है कि ये प्रथम श्रीधर ही इस ग्रन्थकं कर्ता हैं; क्योंकि धर्मात्माने दिल्ली में विशाल जैनचैत्य (जैनमन्दिर) यह ग्रन्थ उससे १८ वर्ष बाद बना है । अतः का निर्माण कराकर उसका प्रतिष्ठात्मव भी किया था यह होसकता है कि प्रथम श्रीधर ही इसके र यता जैमा कि उक्त ग्रन्थकी पाँचवी मंधिकं बादक निम्न हां, अथवा श्रीधर नामकं किमी दूमरे विद्वानकी यह पद्यमे प्रकट है:
कृति हो, कुछ भी हो इम सम्बन्ध विशेष अनु"येनाराध्य विशुद्धधीरमतिना देवाधिदेवं जिनं। सन्धान करनेकी पारूरत है। सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुणः संतोपिता बांधवाः॥
प्रस्तुत मुकमालरितकी रचना माहु पीथेके । सुपुत्र कुमारकी प्रेरणा या अनुरोधपर हुई है। ग्रन्थ
की पाद्यतप्रशस्तिम साह पीथे के वंशका विस्तृत स श्रीमान्विदितः सदेव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः॥" परिचय दिया हुआ है, जिसमे मालूम होता है कि ____ऊपरके उल्लेखमे यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह ग्रन्थ बलडइ (अहमदाबाद-गुजरात) गाँवम बना विक्रमकी १२ वीं शताब्दिक अन्तिमभाग (१९८९)में है जहाँ गोविन्दचन्द्र नामकं राजाका राज्य था और दिल्लीम दिगम्बर जैनमन्दिर मौजद थे और नटल- वहाँक जिनमन्दिरमं पद्मसन नामक मुनि प्रवचन साहन एक अन्य दिगम्बर जैनन्दिर बनवाकर किया करत थ । माह पाथ पुरवाड़वशक भूपण थ उसका प्रतिष्ठामहोत्सव भी कगया था। इसके सिवाय,
और मम्यक्त्वादि गुगाम अलकृत थे। साह पीथेक १४-१५ वीं शताब्दीमें भी दिल्लीम जैनमन्दिरीका
पिताका नाम 'माहर जग्ग' था और माताका नाम निर्माण होता रहा है। परन्तु वेद है कि आज उन
'गल्हा देवी । इनके सात भाई और थे, महेन्द्र, प्राचीन समयक मन्दिरोंकी कोई मतियाँ प्राप्त नहीं।
मणहरू, जालहणु, मलक्खा , मं पुण्ण(?), समुदपाल होती। पर इतना अवश्य ज्ञान होता है कि वे सब । मन्दिर मुसलमानी बादशाहनके समय धराशायी 'सुलक्षणा' था, जा बड़ी ही विचक्षगा धार कार्यपद कग दिये गये हैं और उन जैनन्दिरों आदिक था इसास कुमार नामक पुत्रका जन्म हुआ था, पाषाण कुतुबमीनारमें लगा दिये गये हैं। कतबमीनार जिसका प्ररणाका पाकर कविने उक्त ग्रन्थकी रचना में आज भी जैनन्दिक पापण पाए जाते हैं की है और वह उसीके नामाङ्कित भी किया गया है। जिनमें जैन मृतियाँ अङ्कित हैं। उनमें कितने ही बारहसयइं गयई कपहरिसइ अट्टोत्तरं महीयलिवरिसइं । पापाण पलटकर भी लगाये गये हैं। यदि उन्हें कसण पक्खिागहण होजायए तिम्णदिवसि समिवासरमायए