Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 430
________________ ४०७ अनेकान्त वर्ष ] देवताविशेष शास्त्रस्यादौ नमस्कुवन्नाह ।' इन प्रमाणोंसे यही सिद्ध होता है कि यह टीका -प्रवचनसारसगेजभास्कर। प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि प्रसिद्ध ग्रन्थोंके कर्ता 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी, रत्नाना रक्षणापायभूतरत्र- प्रभाचन्द्राचार्यकी बनाई हुई है और जिनका समय करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिग्नाना पालनोपायभूतं वि० सं० १८६७ से वि० सं० ११३७ (ई० सन १०१० रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्नकामो निविघ्नतः से १०८०) है।। शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वन्नाह ।' -रत्नकरण्ड-टीका पृ० १। वीरसेवामन्दिर, १९-१०-४७ सम्पादकीय बक्तव्य १ अनेकान्तकी वर्ष-समाप्ति जाती हैं और लच्छेदार बातोंमें ग्राहक बनाये जाते इस किरणकं माथ अनकान्तका आठवाँ वर्ष हैं पर सालमें ४-६ अङ्क देकर चन्दा खतम कर दिया समाप्त होरहा है। इस वर्ष अनेकान्तने पाठकोंकी जाता है ।" दूसरे एक विद्यार्थी महाशय यहांतक कितनी संवा की, कितने महत्वके लेख प्रस्तुत किये. कुपित हुए कि वे सम्पादक या प्रकाशकको कोसनके कितनी नई खोजें सामने रक्खी. क्या कळ विचार- बजाए सारे जेनसमाजको ही कोसने लगे और जाति उत्पन्न की और समाजके राग-द्रपस कितना आवशम आकर लिख गये-"ऐसी जैनसमाज, जा अलग रहकर यह ठोस सेवा-कार्य करता रहा, इन एक ऐसे उच्चकोटि के पत्रका प्रबन्ध नहीं कर सकती, सब बातोंको बतलानकी यहाँ जरूरत नहीं-नित्यकं याद वह संसारसे नष्ट होजाय, तो अच्छा है।" पाठक उनसे भलीभाँति परिचित हैं और जो परिचित औरत और कुछने प्रबन्धादिकी भमना-द्वारा अन्य प्रकारसे न हों वे वापिक विषय-सूची आदिको देखकर उसका ही अपना रोष व्यक्त किया। ग्राहकोंका यह रोष कितना ही आभाम प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु म यद्यपि मुझे बुरा नहीं लगा, मैंने उसे अपने लिये एक यह प्रकट करते हुए खेद ज़रूर होता है कि इस वर्ष प्रकारकी चेतावनी समझा और साथ ही यह भी का कार्यकाल लम्बा अधिक होगया है-उसने १२ समझा कि पाठकका अनकान्तका समयपर न स्थानपर ४ मासका ममय ले लिया है और यह निकलना कितना अखर रहा है और वे उसके लिये अनेकान्तक इतिहाममें पहला ही अवसर है जब वर्ष कितने आतुर होरहे हैं । परन्तु फिर भी मैं का श्रारम्भ होजानेपर उमकी समाप्तिमें इतना समय मजबूर था। लगा हो । इस वर्षकी अनेक किरणोंक प्रकाशित मैंने पिछले वर्षके अन्तमें अपनी स्थिति और होनेमें प्रेस और काग़जकी गड़बड़ीके कारण जो असा- प्रसक कारण हानवाली अपनी परेशानीका स्पष्ट कर धारण विलम्ब हुआ उसकी वजहम पाठकों को भारी दिया था। मैं नहीं चाहता था कि प्रेसकी समुचित प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाना पड़ा है और यही मेरे लिये व्यवस्था हुए बिना पत्रको अगले सालके लिये जाग खेदका विषय है। प्रतीक्षा करते करते कुछ पाठकांक रक्खा जाय, और इम लिये वैसी व्यवस्थाके अभावतो धैर्यका बांध ही टूट गया और वे आक्षेपकी भाषा १देग्यो, हाल में लिखा गया 'श्रा० माणिक्यनन्दिके समयपर म यद्वा तद्वा जो जीमें आया लिख गये। एक अभिनव प्रकाश' नामका मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ८ मजनने लिखा--'साल शुरू होनपर नई स्कीमें रखी कि०८-६ ।

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