________________
(लेखक- स्वर्गीय श्री भगवत' जैन)
त्राचार्य धरसेनने गम्भीर स्वरमें कहा- और यह देख उनका मन आनन्दसे भर गया।
" 'जानते हो, किस लिए बुलाया है अपनी कामनाके अनुकूल वस्तु पाकर कौन खुश तुम दोनोंको ?'
नहीं होता ? विनयसे झुकते हुए दोनों मुनियोंने एक स्वरमें कई दिन आचार्य-चरणोंमें बीत गए दोनोंके । उत्तर दिया-'सिर्फ इतना ही, कि हमें विशेष विद्या- नहीं कहा जा सकता-ज्ञानकोष आचार्यवर्यने क्यालाभ होगा और वीर-शामनकी सेवाकी योग्यता क्या अन्वेषण किया उन दोनोंके गुण-दोषोंका ? प्राप्त होगी।'
___ एक दिन बोले-'एक मन्त्र मैं तम दोनोंको ____ 'ठीक, यही बात है। मंग इच्छा है, मैं अपने देता हूँ। विधि-पूर्वक साधन करो। विद्या जब सिद्ध अन्तिम दिनोंमें किन्हीं योग्य शिष्योंको वह ज्ञान होजाय, तब मुझे आकर कहना-समझे ? साँप जाऊँ, जिसे मैंने परिश्रमसे अपने जीवनमें पुष्पदन्तने कहा- 'जैसी आज्ञा'। मञ्चय किया है, ताकि आने वाले कठोर-युगमें शास्त्र- मन्त्र उन्हें बतला दिया गया-सविधि । ........ ज्ञान-द्वारा वीर-शासन दुनियाका कल्याण कर सके। और उन्हें इजाजत दी, जाने की । वह चले गए। श्रुत-ज्ञानकी रक्षा होसके।'
भूत लकी बारी आई। उन्हें भी मन्त्र दे, विदा किया। पुष्पदन्त और भूतबर्बाल दोनों चुप, सुनतेभर रहे। अकंले आचार्य महाराज बैठे रहे मौन ! शायद फिर वे बोले (इसबार वाणीमें प्रसन्नताकी पुट सोच रहे थे-'बुद्धिवादकी परीक्षामें ये उत्तीर्ण होते थी)-'पर, इस सबके लिए योग्य शिष्योंकी जरूरत हैं, या अनुत्तीर्ण ? निजी पंजी भी कुछ है या रटन्तथी। शेरनीके दूधके लिए स्वर्णपात्रकी आवश्यकता विद्यार्थी बने हुए मार्गपर चलनेके आदी (अभ्यासी) होती ही है, उसके बिना वह दुर्लभ वस्तु ठहर नहीं हैं, या स्वयं अपना मार्ग निर्माण करनेकी भी क्षमता सकती। मैं चिन्तित था, मेरी निगाहमें वैसा कोई है इनके पास... . . . . . . . . . . . ?' शिप्य न था-प्रसन्नतापूर्वक विद्या-विभूति जिसके सुपद की जासकती । अतः तम्हारं ग आचार्य गिरनार-शेल के पावन क्षेत्रमें-भगवान नेमिनाथ महासनसे निवेदन किया गया कि वे अपने साहसी,
की निर्वाण-शिलापर बैठ गए-दोनों मन्त्र-साधनसूक्ष्मबुद्धि, विनम्र और ग्रहण-धारणमं ममर्थन के लिए।
अचल, सुमेरुकी तरह ! ध्यानस्थ !! नि:स्पृह !!! सुशील विद्यार्थी मुझे दें। मुझे प्रसन्नता है कि उन्होंने
नासाग्र-भागपर होष्ट ! एक दुसरेकी दृष्टि तुम्हारे जैसे नम्र और चतुर विद्यार्थी मुझे देकर मेरी
ओभल ! चिन्तास शुन्य ! अपने आपमें तन्मय ! सहायता की है । काश ! तुम्हारे द्वारा मेरी सद्
एकान्त-स्थान ! वैराग्यमय !! इच्छा सफलीभूत हो।'
मन्त्र-साधन जब ममाप्तिकी ओर बढ़ा, तो पुष्पदन्नन अविलम्ब श्रीपदोंमें सिर नवाते हुए कहा- भविष्यपर निर्भर है -गुरुवर्य ! ममयसे पूर्व
पुष्पदन्तकं सामने एक देवी आई-वस्त्राभूषणोंसे
अलंकृत, सुन्दर शरीर! . कुछ कहना अनधिकार चेष्टा होगी।
'पर, यह विकृति क्यों ?'-पुष्पदन्तके मनमें आचार्यने मन्दमुस्कानसे दोनों निम्रन्थ- प्रश्न उठा ! विद्यार्थियोंकी ओर देखा । देखा सचमुच अहङ्कारसे भर-नज़र देखा-देखा कि देवीके एक चक्षु रीते हैं दोनों विनम्रतासे पूर्ण विद्या-पात्र । है-कानी है !