Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 428
________________ ४६८ अनेकान्त [ वर्ष ८ प्रबन्धः ' कृत इति ।' एक स्थलको नीचे देते हैंइन समान समाप्ति-पुष्पिकावाक्योंसे सिद्ध होता 'धन्वन्तरि-विश्वानुलोमो स्वकृतकर्मवशात् अमितहै कि ये तीनों ग्रन्थ धारा-निवासी श्रीप्रभाचन्द्र प्रभ-विद्यत्प्रभी देवौ सञ्जातौ । तो चान्योन्यस्य धर्मपण्डितकी रचना हैं जो धारामें भोजदेव और परीक्षणार्थमत्रायातौ । ततो यमदग्निस्ताभ्यां तपसजयसिंह देवके राज्यसमयमें हुए हैं। गद्यकथाकोशकी श्चालितः । मगधदेशे राजगृहनगरे जिनदत्तश्रेष्ठी रचना इन्होंने सर्वसुखावबोधी अत्यन्त सरल पदों- स्वीकृतोपवासः कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ श्मशाने कायोद्वारा की है जिसकी सूचना उन्होंन 'सुकोमलैः सर्व- त्सर्गेण स्थिती दृष्टः । ततो अमितप्रभदेवेनोक्तं दूरे सुखावबोधैः पदैः प्रभाचन्द्रकृतः प्रबन्धः' इत्यादि तिष्ठन्तु मदीया मुनयोऽमुं गृहम्थं ध्यानाच्चालयति । ततो समाप्रिपद्यके द्वारा स्वयं की है। विद्यत्प्रभदेवेनानकधा कृनोपसर्गाऽपि न चलितो हमारा मत है कि गद्यकथाकोशके रचयिता ध्यानात्ततः प्रभाते मायामुपसंहृत्य प्रशस्य च आकाशप्रभाचन्द्रपण्डितने ही रत्नकरण्डक-टीकाका बनाया गामिनी विद्या दत्ता तवेयं मिट्टा अन्यस्य च नमस्कार है। इसके आधार निम्न हैं: विधिना सिध्यतीति । -गद्यकथाकोश लि० पत्र १५ (क) गद्यकथाकोश और रत्नकरण्डक दोनोंकी 'धन्वन्तरि विश्वलोमौ सुकृतकर्मवशामितप्रभसाहित्यिक रचना एकसी है। दोनोंके निम्न मङ्गला- विद्यत्प्रभदेवी साता चान्योन्यम्य धर्मपरीक्षणार्थचरणपद्योंकी तुलना कीजिये मत्रायातौ । ततो यमदग्निम्ताभ्यां तपसश्चालितः । मगधप्रणम्य मोक्षप्रदमस्त-दापं प्रकृष्ट-पुण्य-प्रभवं जिनेन्द्रम। देशे राजगृहनगरे जिनदत्तश्रेष्ठी कृतोपवासः कृष्णवक्ष्येऽत्र भव्य-प्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सकथाप्रबंधम।। चतुर्दश्यां रात्रौ श्मशान कायोत्सर्गेण स्थितो दृष्टः। -गद्यकथाकोश लि० पत्र १ ततोऽमितप्रभवनोक्तं दूरे तिष्ठन्तु मदीया मुनयाऽमु समन्तभद्रं निखिलात्म-बोधनं, गृहस्थं ध्यानाचालयति । ततो विद्युत्पभदवेनानकधा जिनं प्रणम्याखिल-कर्म-शोधनम् । कृतोपसर्गाऽपि न लिता ध्यानात । ततः प्रभात निबन्धनं रत्नकरण्डे परं, मायामुपसंहृत्य प्रशम्य चाकाशगामिनी विद्या दत्ता। करोमि भव्य-प्रतिबोधना-करम ॥शा तस्मै कथितं च तवयं सिद्धाऽन्यस्य च पश्चनमस्कारा -रत्नकरण्ड-टीका पृ०१ चनाराधनविधिना सेत्स्यतीति । - रत्नक.-टीका पृ०१३ (ख) गद्यकथाकोशमें अञ्जनचोर आदिकी जो २ टीका पृष्ट ५-६में आप्पलक्षणके प्रसङ्गमें केवलीकथाएँ दी गई है वे प्राय: शब्दशः रत्नकरण्डक-टीका कवलाहार-मान्यताका संक्षेपमें युक्तिपुरस्सर निराकरण में भी उसी प्रकार पाई जाती हैं। नमूनेके तौरपर किया गया है और सूचना दी गई है कि विस्तारसे १ इस ग्रन्थका प्रभाचन्द्रोक्त शुद्ध नाम 'याराधना-सत्कथा- प्रमेयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें प्ररूपण प्रबन्ध' प्रतीत होता है। गद्यकथाकोश नाम तो पीछेसे करनेसे यहाँ इतना ही संक्षिप्त-कथन पयोत है । यथाइसलिये प्रसिद्ध होगया मालूम होता है कि वह गद्य में 'तदलमतिप्रसङ्गन प्रमेयकमलमात्तण्डे न्यायलिखा गया है और उनके बाद ब्रह्मनेमिदत्तने अपना कुमुदचन्द्र प्रपश्चत: प्रा.पणात ।' कथाकोश पद्यामं लिखा है। प्रभाचन्दके कथाकोशले एसा यहाँ यह खास तौरसे ध्यान देने योग्य है कि भी मालूम होता है कि उनके पहले संस्कृत अथवा पाकृत टीकाकारने अपनी इस टीकामें दूसरे विद्वानके एक या दोनोम रचित कोई पद्यमय भी कथाकोश रहा है और भी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं किया। अत: उपयुक्त जिसके पद्योंके प्रतीक-वाक्यांश इसमें देकर कथाए लिखी उल्लेविस प्रतीत होता है कि टीकाकारन अपने ही गई हैं । जो हो, उसकी पूरी जाँच करनेपर ही कुछ पूर्व रचित उक्त ग्रन्थांका निर्देश किया हैं। अर्थात् निश्चितरूपमं कहा जा सकता है। -लेखक। यह टीका प्रमंयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रक

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