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भनेकान्त
[ वर्ष ८
और गम्य हैं-जब परार्थम्प वचन बन्ध-मोक्षकी गति (जानकारी) का उपाय होता है तब ये दोनों 'वचनीय' होते हैं और जब स्वार्थरूप प्रत्यक्ष या अनुमान बन्ध-मोक्षको गतिका उपाय होता है तब ये दोनों 'गम्य' होते हैं। साथ ही, दोनों सम्बन्धी है-परस्पर विनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए हैं, बन्धके बिना मोक्षकी और मोक्षके बिना बन्धकी संभावना नहीं; क्योंकि मोक्ष बन्ध-पूर्वक होता है । और मोक्षक अभाव. में बन्धको माननेपर जो पहलेसे अबद्ध है उसके पीछेसे बन्ध मानना पड़ेगा अथवा शाश्वतिक बन्धका प्रसङ्ग पाएगा। अनादि बन्ध-स.तानकी अपेक्षासे बन्धके बन्ध-पूर्वक होते हुए भी बनविशेपकी अपक्षासे बन्धकं अबन्ध-पूर्वकत्वकी सिद्धि होती है, प्राक् अबद्धके ही एकदेश मोक्षरूपता होनस बन्ध मोक्षक साथ अविनाभावी है और इस तरह दोनों अविनाभाव-सम्बन्धसे सम्बन्धित हैं तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार सत्स्वभावरूप तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता, विरोध नजर आता है-मवथा क्षणिक (अनित्य) और सर्वथा अणिक (नित्य) आदिरूप मान्यताएँ विरोधको लिये हुए हैं । स्याद्वाद-शासनसे भिन्न परमतमें सत्तत्त्व बनता ही नहीं-सर्वथा क्षणिक और सवथा अक्षणिककी मान्यतामें दूसरी जातिक (परम्पर निरपेक्ष) अनेकान्तका दर्शन होता है, जो सदोष है अथवा वस्तुतः अनकान्त नहीं है । सत्तत्व मर्वथा एकान्तात्मक है ही नहीं; क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणांसे उसकी उपलब्धि नहीं होती।
(इस पर यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भले ही सत्तत्त्वकी उपलब्धि (दर्शन-प्राप्ति) न होती हो, परन्तु परपक्षक दूषणसे तो उसकी सिद्धि होती ही है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि) जो यथार्थ वाक्य होता है वह दूषणरूप नहीं होता—जिसको क्षणिक-एकान्तवादी परपनमें स्वयं दूषण बतलाता है उसमें यथार्थ-वाच्यता होनेसे अथवा परपक्षकी तरह स्वपक्षां भी उसका सद्भाव होनस उसे दूषणरूप नहीं कह सकते, वह दृपणाभास है। और जो दृषण परपक्षकी तरह स्वपक्षका भी निराकरण करता हो वह यथाथ वाच्य नहीं हो सकता । वास्तवमें दोनों सर्वथा एकान्तांस, विरोधकं कारण, अनकान्तकी निवृत्ति होती है, अनेकान्तकी निवृत्तिसे क्रम और अक्रम निवृत्त होजाते हैं, क्रम-अक्रमकी निवृत्तिसे अर्थ-क्रियाकी निवृत्ति हो जाती है-क्रम-अक्रमके बिना कहीं भी अर्थ-क्रियाकी उपलब्धि नहीं होती और अर्थ-क्रियाकी निवृत्ति होनेपर वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था नहीं बनती: क्योंकि वस्तुतत्त्व अर्थ-क्रिया के साथ व्याप्त है। और इस लिये सर्वथा एकान्ताम सत्तत्वकी प्रतिष्ठा ही नहीं हो सकती ।'
उपेय-तत्त्वाऽनभिलाप्यता-वदुपाय-तत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् ।
अशेष-तत्वाऽनभिलाप्यतायां द्विपां भवद्य क्तयभिलाप्यतायाः ॥२८॥
(हे वीर जिन !) आपकी युक्तिकी-म्याद्वादनीतिकी-अभिलाप्यताके जो द्वषी हैं-संपूर्ण वस्तुतत्त्व स्वरूपादि-चतुष्टयकी (म्वद्रव्यक्षेत्र-कालभावकी) अपेक्षा कश्चित सनरूप ही है, पररूपादिचतुष्टयकी (परद्रव्यक्षेत्र-कालभावकी) अपेक्षा कश्चित असनरूप ही है इत्यादि कथनीक साथ द्वेषभाव रखते हैं-उन द्वेषियोंकी इम मान्यतापर कि 'संपूण तत्त्व अनभिलाप्य (अवाच्य) है' उपयतत्त्वकी अवाच्यताके समान उपायतत्त्व भी सर्वथा अवाच्य (श्रवक्तव्य) होजाता है-जिस प्रकार निःश्रेयस (निर्वाण-मोक्ष) तत्त्वका कथन सर्वथा नहीं किया जा सकता उसी प्रकार उसकी प्राप्तिके उपायभूत निर्वाणमागका कथन भी सर्वथा नहीं किया जा सकता; क्योंकि दोनोंमें परस्पर तत्त्व-विषयक कोई विशेपता नहीं है।