Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 408
________________ ४४२ अनेकान्त [वर्ष ८ ___ इसमें बतलाया है कि 'आत्मप्रदेशोंमें बँधा हुआ परेषां मनसि वर्तमानमर्थं यज्जानाति तन्मनः जो कर्म है वह द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकमे ऐसे पर्ययज्ञानम्, तदावृणोतीति मनःपर्ययज्ञानावरणीयम् । तीन प्रकारका है।' इसके पश्चात द्रव्यकर्मका वर्णन करते हुए उसे प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश इन्द्रियागि प्रकाशं मनश्चाऽनपेक्ष्य त्रिकालभेदसे चार प्रकारका बतलाया है और फिर प्रकृतिका गोचर-लोकाऽलोक - सकलपदार्थानां युगपदवभासक स्वरूप ज्ञानप्रच्छादनादिस्वभाव बतलाकर उमके केवलज्ञानम्, तदावृगोतीति केवलज्ञानावरणीयम् ।" तीन भेद किये हैं-मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके यथाक्रम १५८ नामों और उनके उत्तरोत्तरप्रकृति । यथा:-- स्वरूपका निर्देश करने के बाद, एवं उत्तरप्रकृतिबन्धः "तत्र प्रकृति-स्थित्यनभाग-प्रदेश-भेदेन द्रव्यकर्म चत्- कथितः' इम वाक्यक माथ उत्तरप्रकृतिबन्धके कथन को गमान करकं. उत्तरोनरप्रतिबन्धक सम्बन्धमें विधम् । तत्र ज्ञानप्रच्छादनादिम्वभाव(वा) प्रकृतिः । लिखा है:सा मूलप्रकृतिरुत्तरप्रकृतिरुत्तरात्तरप्रकृतिरिति त्रिधा ।" "उत्तरोत्तर-प्रकृति-बन्धों वाग्गोचरो न भवति ।" ___ इसके अनन्तर मृलप निको ज्ञानावरणीय, अर्थात-उत्तरोत्तरप्रकृतियोंका बन्ध वचनदर्शनावरणीय, वेदनीय, माहनीय, आयुष्य, नाम, गोचर नहीं है। गोत्र और अन्तगयरूप आठ प्रकारको वतला- परन्तु उत्तरोत्तर प्रकृतियोंका कथन मर्वथा वचनक कर प्रत्यकका अलग-अलग म्वरूप निर्दिष्ट किया है अगोचर तो नहीं होमकना; क्योकि आगमम मति और तदनन्तर उत्तरप्रकृतयोऽप्रचत्वारिंशदुत्तरशतम' ज्ञानक ३३६ भेदोंका वणन, उनकी दस ज्ञानाइस वाक्यक द्वारा उनरप्रकृतियांकी संख्या १५८ का वरणकी ३३६ उत्तरोत्तम्पनियाँ तो कही ही जामकती निर्देश करके "तद्यथा" पाक्यक मात्र प्रत्यक मृल- हैं। इसी तरह श्रतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:प्रकृति की उत्तरप्रकृतियांका उनकी संख्या-सूचनाके पर्यज्ञानके भी कितने ही भदाका अलग अलग साथ नाम-निर्देश किया है और साथ ही एक-एक वणन है, उनकी दष्ट्रिय भा ज्ञानावरणकी कितनी ही वाक्य-द्वाग उनका स्वरूप भी दे दिया है । यहाँ उत्तरोत्तर प्रकृतियांका निर्देश किया जामकता है । तब नमूनक तौरपर ज्ञानावरणीयकर्मकी पांच उत्तर कृ- उत्तरोनर प्रकृनियाँको वचनकं अगोचर कहनेका नियोंक स्वरूप-निर्देशक वाक्याको नीच दिया। आशय यहाँ इतना ही लेना चाहिये कि संपूर्ण जाता है: उत्तरोनरप्रतियोंकी मंग्याका निर्देश तथा उनके "तत्र पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च ज्ञानं मतिज्ञानम, नामादिकका पूर्ण कथन नहीं किया जासकना-- उनके मर्वथा अनिर्वचनीय हानका प्राशय नहीं लेना चाहिये। नदागोतीति मतिज्ञानावरणीयम् । द्रव्यकर्मक प्रकृति-भंदका वर्णन करनेके अनन्तर मतिज्ञान-गृहीताऽर्थादन्यस्याऽर्थस्य ज्ञानं श्रुत- उसके शंप स्थिति अनुभाग और प्रदेशबन्ध नामक भेदोंक स्वरूपादिका क्रमश: चगान किया गया है, ज्ञानम्, तदावृगोतीति श्रुतज्ञानावरणीयम । जिमका एक नमूना स्थितिबन्धक स्वरूप-निर्देशवर्ग-गन्ध-रस-म्पर्श - युक्त-मामान्य - पुद्गलद्रव्यं विषयका इस प्रकार है-- तत्सम्बन्धि-संसारिजीवद्रव्यागि च द्रव्य-क्षेत्र-काल- "ज्ञानावरीयादि-प्रकृतीनां ज्ञानप्रच्छादनादिभव-भावानधिकृत्य यत्प्रत्यक्षं जानातीत्यवधिज्ञानम्, स्वस्वभावाऽपरित्यागेनाऽवस्थानं स्थितिः तत्कालश्चीतदावृणोतीन्यवधिज्ञानावरगगीयम् । पचारात् ।"

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