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किरण १२ ]
८९ विष्णुवल्लभयोग – ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत । ९० मुहूर्तमुक्तावली - ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत, पत्र ४ ९१ रमलशकुनावली - रमलशास्त्र, हिन्दी, पत्र ३ ९२ जातकसार ज्योतिष, संस्कृत, पत्र २० । ९३ प्रश्नसार - ज्योतिष, संस्कृत, पत्र ३ | ९४ कष्टावली - ज्योतिष, संस्कृत, पत्र ३ । ९५ वर्षदशा संवत्सरी - ज्योतिष, संस्कृत, पत्र ५ ९६ कर्मविपाक - ज्योतिष, संस्कृत, हिन्दी | ९७ भवनदीपक (संस्कृत ) - पद्मप्रभसूरि-कृत ज्योतिषशास्त्र ।
प्रश्नवैव संस्कृत ) - ब्रह्मदासात्मज नारायणकृत, ज्योतिपशास्त्र, पत्र ३६ ।
९९ ज्ञानत्तमी (प्राकृत) - उद्धारकर्ता ऋषि उत्तम, पत्र ५, प्रतिलिपि सं० १७२३ ।
१०० नारचन्द्रहोराचक्र (संस्कृत) - जैन ज्योतिष शास्त्र (सिर्फ पहला पत्र त्रुटित है ) |
दिगम्बर जैन आगम
अपूर्ण ग्रन्थ
१ ज्ञातासूत्र -- ( ज्ञातृधर्मकथाङ्गसूत्र ) प्राकृत |
२ अन्तगडांगसूत्र - प्राकृत |
३ रायपणीसूत्र - प्राकृत |
४ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र - प्राकृत ।
५ सर्वार्थसिद्धि ( उत्तराध्ययनटीका ) *कमलसंयमोपाध्याय विरचित संस्कृत |
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आजकल जो ग्रन्थ जैन आगम के नाम से प्रसिद्ध हैं वे श्वेताम्बर मतानुयायी हैं। उनकी प्रामाणिकता - के विषय में दिगम्बर सम्प्रदाय तनिक भी आस्था नहीं
पंचम अध्ययनके टिप्पण में इन्हें 'खरतरगच्छाधिराज श्रीजिनभद्रसूरि-शिष्य' लिखा है ( पत्र ७३ ) और तीसरे तथा चाथमें मूलमें ही ऐसा सूचित किया है ( पत्र ६७) ।
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६ भविष्यदत्त चरित्र (संस्कृत) - विबुध श्रीधर (दिगम्बर) - विरचित, आदि अन्त और मध्यमें कुछ पत्र त्रुटित हैं। जीर्ण शीर्ण ।
७ कल्पसूत्र ( प्राकृत ) - २ से १२ तकके पत्र त्रुटित और शेष १३२ तकके पत्र मौजूद हैं। प्रति अत्यन्त जीर्ण है । संवत् १७६७ की प्रतिलिपिसे यह सवत् १७ प्रतिलिपि की गई है।
८ प्रवचनसरोद्धार सवृत्ति - संस्कृत ।
९ जातक (संस्कृत) – ज्योतिष-विषयक ।
१० अश्वचिकित्सा संस्कृत ) - नकुलकृत । ११ सारस्वत व्याकरण - (विसर्गसन्ध्यन्त) २, ३ और १३ से आगे के सत्र नहीं हैं ।
१२ पञ्चसायक सूत्र - कविशेषराज ज्योतिश्वराचार्य विरचित । मूल संस्कृत हिन्दी अर्थ सहित | विषय कथा । पत्र २४, ६ और १०वाँ त्रुटित ।
दिगम्बर जैन ग्रागम
( लेखक - आचार्य बलदेव उपाध्याय, एम. ए. साहित्याचार्य हिन्दू विश्वविद्यालय )
१३ कुतूहलकरण ब्रह्मसिद्धान्ततुल्य - भास्करकृत, संस्कृत, विपय ज्योतिष, पत्र १० ।
१४ प्रद्युम्नचरित (संस्कृत ) – सोमकीर्ति· कृत, (दिगम्बर ) पत्र १३३, बीचमें १११ से ११७ तकके ७ पत्र त्रुटित हैं।
इसके सिवाय वैद्यमहोत्सवादि तीन अपूर्ण ग्रन्थप्रतियोंकी सूचना पूर्ण ग्रन्थ प्रतियोंके साथ की जा चुकी है।
रखता । इसके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन पाटलीपुत्रसङ्घके अध्यक्ष भद्रबाहु ही अन्तिम श्रुतकंवली थे जिन्हें समस्त आगमोंका यथार्थ ज्ञान था । उनके अनन्तर पूर्व और अङ्गका ज्ञान धीरे धीरे विलुप्त होगया। ऐसी विषम स्थिति उपस्थित होगई कि जनतामें जैन सिद्धान्तोंके प्रचारकी बात तो दूर रही, प्राचीन मान्य ग्रन्थोंका विशेषज्ञ ढूंढ़नेपर भी