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किरण १२ ]
दिगम्बर जैन आगम
ग्रन्थ ही है। परन्तु इन ग्रन्थोंके अनुशीलनसे यह जिसका अर्थ राग-द्वेष है। मोहनीय कर्मके ये ही दो बात स्पष्ट है कि महाधवलशाल टीका-ग्रन्थ न होकर प्रधान प्रकार हैं। तथा इन्हींका विस्तृत विवेचन मृलग्रन्थ है । 'पटखण्डागम' का अन्तिम खण्ड 'महा- ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य है। यह ग्रन्थ १५ अधिकारोंमें बन्ध' ही विद्वत समाजमें महाधवलके नामसे विभक्त है जिनमें कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध नाना प्रकार प्रसिद्ध है। पटवण्डागमके प्रारम्भक १७७ सूत्रांकी की जैन प्ररूपणायें बडे विस्तारके साथ निरूपित रचना तो पुष्पदन्ताचार्यने की। इसके अनन्तरका की गई हैं। समग्र आगम शास्त्र आचार्य भूतबलि स्वामीकी रचना ५ चूर्णि ग्रन्थ-आचार्य यतिवृषभने इस कसायहै । यह समग्र महाबन्ध इन्हीं आचायवयेकी पाहड नामक ग्रन्थपर प्राकृतमें ही विशाल भाष्य चमत्कारपृण कति है। ये अपन ममयक बड़ ही लिखा है जो चर्णिसत्र कहलाता है। मलग्रन्थमें तो महनीय मन्त्रशास्त्रमें निपुण जैनाचाय थे । इनक केवल २३३ ही गाथायें हैं परन्तु इस चणि ग्रन्थका
पाण्डत्यका तथा दाशानक ज्ञानका जितना परिमाण ६००० छ: हजार श्लोक है । गुणधरकी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है। महाबन्धका विस्तार शिष्य परम्पराम आर्यमंक्ष तथा नागहस्ति दो प्रधान ४५,००० शोक परिमाण है। इसकी भाषा विशुद्ध आचार्य हए जिन्होंने कसायपाहुडका अनुशीलन बड़े प्राक़त हैं और इसम धवला तथा जयधवलाक ही अध्यवसायकं साथ किया था। इन्हींसं इस ग्रन्थममान संस्कृत तथा प्राकृत भाषाका मिश्रण नहीं है। का साङ्गोपाग अध्ययन कर आचार्य यतिवृपभने ___'महाबन्ध' का विपय जैन मतानुसार कर्मका मूल अर्थको विशदरूपसे प्रतिपादन करने के निमित्त सूक्ष्म विवचन है । कपायक सम्बन्धसे जीव कर्मके इन चूगिा-मूत्र की रचना की है। ये अपने समयके योग्य पुद्गलांको जो ग्रहण करता है उसे ही बन्ध महान दार्शनिक थे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । कहने । बन्धके चार प्रकार हैं (१) प्रति. इनका समय वीरनिवाण मंवत् १००० के आसपास (२) स्थिति, (३) अनुभाग तथा (४) प्रदेश। इन हैं। इस प्रकार इस वृणिग्रन्थकी रचना विक्रमके चारा प्रकारांका अवान्तर विभेदमे युक्त विवचन बडे पश्चम या पष्ठ शतकम हुई। विस्तारके माथ इस ग्रन्थरत्नमें किया गया है । बन्धका ६ जयधवला-मूल ग्रन्थ कमायपाइड और चरिणमाङ्गोपाङ्ग विवचन दोनेके कारण इस ग्रन्थका महा- सत्रक ऊपर यह विशालकाय व्याख्या ग्रन्थ है। बन्ध नाम यथार्थ है। पिछले दिगम्बर जैन परिमाणम यह चरिणग्रन्थसे दसगुणा बड़ा है अर्थात् दानिकान कर्मका विवेचन इमी ग्रन्थकं आधारपर ६८,८८० श्लोक जितना है। इसके लेखक आचार्य किया है । इस प्रकार विवचनकी सर्वाङ्गीणता, वीरसेन हैं जिन्होंने पट्खण्डागमकी पूर्वोक्त 'धवला' प्रतिपादन-शैलीकी विशदता, दानिक तत्त्वोंकी नामक पाण्डित्यपूण व्याख्या लिखी है। परन्तु इस गम्भीरता, प्रभावकी व्यापकता, इन सब दृष्टियांस ग्रन्थका केवल तृतीयांश भाग लिखकर ही ये निर्वाण समीक्षा करनेपर यह ग्रन्थ मामान्य ग्रन्थ न होकर (दहाक्सान) को प्राप्त होगये । तदनन्तर इनके शिष्य एक महान तथा विराट् ग्रन्थ है।
आचार्य जिनसनने ग्रन्थकं शेष भागको पूरा किया। ४कमायपाइड-दिगम्बर सम्प्रदायका यह इस ग्रन्थको रचना राप्रकूट नरेश अमाधवक समय भी एक मान्य ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य म की गई थी। जयधवलाकी समाप्ति शक संवत गुणधर पूर्वोक्त आचार्य भूतबलि के समकालीन थे। ७५९ (८३७ ई० में हुई' । धवलाकी समाप्ति शक इस प्रकार इस ग्रन्थका भी रचना काल विक्रमका १ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया । प्रथम शतक है। कसायका अभिप्राय कषायसे है निष्ठिता प्रचयं यायात् प्राकल्यमनल्पिका ॥