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अनकान्त
[ वर्ष
विद्या-प्रसूत्यै किल शील्यमाना भवत्यविद्या गुरुणोपदिष्टा ।
अहो त्वदीयोक्त्यनभिज्ञ-मोहो यजन्मने यत्तदजन्मने तत् ॥२४॥ '( हे वीर जिन ! ) आपकी उक्तिसे–स्याद्वादात्मककथन-शैलीसे अनभिज्ञका-बौद्धोंके एक सम्प्रदायका-यह कैमा मोह है-विपरीताभिनिवेश है—जो यह प्रतिपादन करता है कि 'गुरुके द्वारा उपदिष्ट अविद्या भाव्यमान हुई निश्चयस विद्याको जन्म देने में समर्थ होती है' ! (क्योंकि) इससे जो अविद्या अविद्यान्तरके जन्मका कारण सुप्रसिद्ध है वही उसके अजन्मका भी कारण होजाती है !!---और यह स्पष्ट विपरीताभिनिवेश है जो दर्शनमोहके उदयाऽभावमें नहीं बन सकता । जो मदिरापान मदजन्मक लिये प्रसिद्ध है वही मदकी अनुत्पत्तिका हेतु होने के योग्य नहीं होता।'
(यदि कोई कहे कि 'जिस प्रकार विपभक्षण विपविकारका कारण प्रसिद्ध होते हुए भी किंचिन विविकारके अजन्मका-उसे उत्पन्न न होने देनेका हेतु देखा जाता है, उसी प्रकार कोई अविद्या भी भाव्यमान (विशिष्ट भावनाको प्राप्त) हुई स्वयं अविद्या-जन्मके अभावकी हेतु होगी, इममें विरोधका कोई बात नहीं' तो उसका यह कथन अपर्यालोचित है; क्योंकि भ्रम-दाह-मृदादि विकारको जन्म देने वाला जङ्गमविप अन्य है और उस जन्म न देने वाला-प्रत्युन उम विकारको दूर कर दन वाला-- स्थावर्गवप अन्य ही है, जो कि उम विषका प्रतिपक्षभूत है, और इस लिये अमृत-कोटि में स्थित है, इमाम विपका 'अमृत' नाम भी प्रसिद्ध है । विप मर्वथा विप नहीं होता, उमं मवथा विप माननपर वह विपान्तरका निधनभूत नहीं बन सकता । अतः विषका यह उदाहरण विपम है। उसे यह कहकर माम्य उदाहरण नहीं बतलाया जासकता कि अविद्या भी जा संसारको हतु हे वह अनादि-वामनाम उत्पन्न हद अन्य ही है और विद्याक अनुकूल है, किन्तु मोक्षकी तुभूत अविद्या दूमरी है, जो अनादि अविद्याक जन्मकी निवृत्ति करने वाला तथा विद्याक अनुकूल है, और इमलिय मंसारकी हेतु अविद्या प्रतिपक्षभत है। क्योंकि जो मवथा अविदाके प्रतिपक्षभूत है उससे अविद्याका जन्म नहीं हो सकता, उसके लिये तो विद्यात्वका प्रमङ्ग उपस्थित होना है । यदि अनादिअविद्या प्रतिपक्षत्वके कारण उम अविद्याको कञ्चित् विद्या कहा जायगा तो उसने मंवृतिवादियांक मतका विरोध होकर स्याद्वादि-मतकं आश्रयका प्रसङ्ग आएगा । क्योंकि म्याद्वादियोक यहाँ कंवलज्ञानम्प परमाविद्याकी अपेक्षा मतिज्ञानादिरूप क्षायोपशमिकी अपकृष्ट विद्या भी अविदा माना गइ है-न कि अनादि-मिथ्याज्ञान-दशनम्प अविद्याकी अपक्षा; क्योंकि उमकं प्रतिपक्षभूत होनस मानज्ञानादिक विद्यापना सिद्ध है । अतः सवथा अविद्यात्मक भावना गुरुके द्वारा उपदिष्ट होती हुई भी विद्याको जन्म देनम समर्थ नहीं है। एमी अविद्याकं उपदशक गुरुको भी अगुरुत्वका प्रमग आता है, क्योंकि विद्याका उपदशी ही गुरु प्रसिद्ध है। और इमलिये पुम्पाद्वतकी तरह संवेदनाद्वैत तत्त्व भी अनुपाय ही है-किसी भी उपाय अथवा प्रमागर्म वह जाना नहीं जा सकता ।)
अभावमात्रं परमार्थवृत्त: सा संवृतिः मवे-विशेष-शून्या ।
तम्या विशेषौ किल बन्ध-मोक्षा हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ।।२५।। ‘परमार्थवृनिस तच्च अभावमात्र हैन ना बाह्याभ्यन्तरम्प निरन्वय क्षणिक परमाणुमात्र नच्व है, सौत्रान्निक मतका निराकरण हो जानसे; और न अन्तःवित्परमाणुमात्र या संवेदनाद्वैतमात्र नत्व है, योगाचारमतका निरसन हो जानसः किन्तु माध्यमिक मतकी मान्यतानुरूप शून्यतत्त्व ही तत्व है.- और वह परमार्थवृति संवृतिरूप है-तात्विकी नहीं: क्योंकि शून्यमंवित्ति नात्त्विकी होनपर मवथा शन्य तच्च नहीं रहना, उमका प्रतिषेध हो जाता है-और मंति मविशपोंमे शन्य है-पदार्थमद्धाव