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* ॐ
अहम् *
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वस्ततत्त्व-सघातक
विश्वतत्वप्रकाशक
वापिक मृल्य ४)
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इस किरणका मूल्य 1-)
नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
अक्तबर
वप८ किरण १.
वीरसेवान्दिर (ममन्तभद्राश्रम), सरसावा जिला महारनपुर आश्रिन शल. वीरनिवाण सं०.४७३, विक्रम सं. २००४
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
गगाद्यविद्याऽनल-दीपनं च विमोक्ष विद्या मृत-शामनं च ।
न भिद्यते मंति-वादि-वाक्यं भवत्प्रतीपं परमार्थ शन्यम् ।।२३।। (यदि मंतिम संवेदनाऽद्वैन-नत्व की प्रतिपत्ति मानकर बौद्ध-दशनकी कष्टाएत का निषेध किया जाय तो वह भी ठीक नहीं बैठना: क्योंकि) मंवृत्त-वादियोंका गगादि-अविद्याऽनल-दीपन-वाक्य और विमोक्षविद्याऽमृत-शामन-वाक्य परमार्थ-शून्य-विपयम परम्पर भंदको लिये हुए नहीं बनना--अर्थात जिस प्रकार मंति-वादियों के यहाँ "अग्निष्टोमन यजेन गकाम:" इत्यादि गगादि-अविदयाऽनल के दीपक वाक्य-ममूहको परमाथ-शून्य बनलाया जाता है उमी प्रकार उनका "मम्याज्ञान-वैतृगा-भावनानी नि:श्रेयमम" इत्यादि विमोक्षविद्याऽमृमका शासनात्मक वाक्य-ममृह भी परमार्थ-शून्य ठहरता है, दोनोंमें परमार्थ-शून्यता-विषयक कोई भेद नहीं है। क्योंकि (हे वीर जिन !) उनमसे प्रत्यक वाक्य भवत्प्रतीप है---आपके अनेकान्त-शासनक प्रतिकूल मर्वथा एकान्त-विषयापमं ही अंगीकृत है- और (इम लिये) परमार्थ-शून्य है । (फलतः) आपके अनेकान्त-शामनका कोई भी वाक्य मर्वथा परमार्थ-शून्य नहीं हैं-मोक्ष-विद्यामृतकं शामनको लिये हुए वाक्य जिस प्रकार मोक्षकारगारूप परमार्थ मे शुन्य नहीं है उसी प्रकार गगाविद्यानलका दीपक वाक्य भी बन्धकारगारूप परमार्थसे-वास्तविकताम---शन्य नहीं है।