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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है
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आपने न एक दोषका ग्रहण और न एक आवरणका होने में प्राप्तमीमांसाकारके लिये कोई बाधा नहीं है। ग्रहण बतलाया है किन्तु अज्ञान, राग, द्वेष आदि इसके लिये उनकी दूसरी रचना स्वयम्भूम्तोत्र-गत बहुत दोषों और ज्ञानावरण आदि बहुत कर्मों का निम्न दो कारिकाएँ पढ़ लीजिये, उनसे आपका निर्देश किया है। वास्तवमें जिस प्रकार 'मनुष्य समाधान होजायगा। पदसे मनुष्य जाति--यावत मनुष्यों और 'पशु' पद- प्रतिहार्यविभवैः परिष्कृतो से पशुजाति-समस्त पशुओं का ग्रहण विवक्षित
देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । होता है उसी प्रकार 'दोष' पद और 'आवरण पद दोष-जाति-यावत दोषों और आवरण-जाति
मोक्षमार्गमशिषन्नरामरासमस्त आवरणों (घातिया कर्मों) के बोधक हैं । यह
नापि शासनफलेषणातुरः ॥७३॥ टीकाकारों, अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों और स्वयं प्राप्त- काय - वाक्य - मनसां प्रवृत्तयो मीमांसाकारके अन्य ग्रन्थोंसे भी प्रमाणित है । जैसा
नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । कि मैं पहले अनेक जगह म्वयंभूस्तोत्रके उल्लेखों द्वारा
नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो अठारह दोषोंका आप्तमीमांसाकार-सम्मत अभाव आप्तमें बतला आया हूँ और जिनमें १२ दोषोंका
धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम्॥७४।। अभाव तो केवलीमें प्रो. सा. ने भी स्वीकार किया है। यदि इतने पर भी आपका समाधान न हो तो इसके सिवाय, 'हत्वास्वकर्मकट्रकप्रकृतीश्चतस्रो'(स्वयं- हम उसके लिये लाचार हैं। ८४) यहाँ अाप्तमीमांसाकारने चार आवरणों (घातिया
उपस हारकर्मों)का और 'अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो' (स्वयं०६६) उपर्यत विवेचन से निम्न बातें मामने में अनन्त दोषोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। तब एक साती ही दोष और एक ही आवरण कहाँ रहा ? यदि हम (१) रत्नकरण्डश्रावकाचारके (छठे पद्य)में प्राप्नमें
आपके फलितको आप्तमीमांसाकारका मत मान ल तो जिन क्षुधादि अठारह दोषोंका अभाव बतलाया गया उसका उन्हींके आप्तमीमांसा (का. ९६, ९८) गत है उनका प्रभाव स्वयम्भूस्तोत्रमें भी वर्णित है। प्रतिपादनसं विरोध आवेगा । अतः आपको अतः रत्नकरण्डमें दोषका स्वरूप प्राप्तमीमांसाकारके टीकाकारांका अवलम्बन और आप्तमीमांमाकारक अभिप्रायसे भिन्न नहीं है और इसलिये वह उन्हीं की दूसरे ग्रन्थों का सहारा लेकर ही उनके अभिप्रायको कति है। समझने-समझानका प्रयत्न करना चाहिए।
(२) साहित्यकारोंने समन्तभद्रके लिये देव और (५) श्राप्तमें अघातिया कर्मोंका सद्भाव रहनेसे 'योगीन्द्र' पदके प्रयोग किये हैं और इसलिए देव वचन, शरीर आदि वृत्तियोंका होना सङ्गत है, पर और योगीन्द्र पदके वाच्य पार्श्वनाथरितमें स्वामी क्षुधा-तृपा, शीत-उष्ण और सुख-दुख व जीवन-मरणका समन्तभद्र विवक्षित हुए हैं। वादिराजके पूर्व अन्य सद्भाव आप्तमीमांसाकारने कहीं भी नहीं माना- 'योगीन्द्र' समन्तभद्रका साहित्यमें अस्तित्व नहीं है। उनका उसे मत बतलाना भ्रममात्र है । कारिका ९३वें (३) आ० प्रभाचन्द्र वादिराजके प्रायः सममें 'वीतरागो मुनिर्विद्वान्' का केवली अर्थ करना कालीन हैं । अतः जहाँ प्रभाचन्द्र द्वारा रत्नकरण्डको एक बड़ी भूल है, उसका साधु परमेष्ठी और उपाध्याय स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाया गया है और अपने परमेष्ठी अर्थ है और उनके सुख-दुख होना ठीक है। आराधनाकथाकोषमें उन्होंने उनके लिये 'योगीन्द्र' इस सम्बन्धमें मैं विस्तारके साथ पहले खुलासा कर रूपसे उल्लेखित किया है वहाँ उनके ही प्रायः अाया हूँ। आप्तमें शरीर, वचन आदिकी वृत्तियोंके समकालीन वादिराजने रत्नकरण्डको 'योगीन्द्र'कृत