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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
( ९ ) 'योगिनश्च' – पत्र १९, पृ. पं. ४ । (१०) 'योगी बहिराकारितः १ प. ११, उ. पं. १ । (११) 'योगिनोऽद्यापूर्वा मूर्तिर्वर्त्तते
"_
प. ४१, उ. पं. २ ।
(१२) 'भो योगिन ... प. ११, उ. पं. ८ । (१३) 'योगी द्वारं दत्त्वा स्वयमेव भंजानो ... प. १०, उ. पं. ६ ।
(१४) 'भो योगिन मृपावादीत्वं' प. १० उ. पं. ७ । 'योगीन्द्र' पदके उल्लेख
(१) 'भो योगीन्द्र ! किमिति रसवती तथैवोदक्षियते प १०, उ. पं. ३ |
'
(२) 'भो योगीन्द्र ! कुरु देवस्य नमस्कार - प. ११३. पं. ४ |
ऐसी दशा में प्रो. सा. के उक्त कथनका कुछ भी महत्व नहीं रहता | अतः यह भलीभाँति प्रमाणित है कि प्रभाचन्द्रकं गद्यकथाकाशमें स्वामी समन्तभद्रके लिये ‘योगीन्द्र' पदका प्रयोग हुआ है और इसलिये मुख्तार मा. के पूर्वोक्त प्रतिपादन और हमारे उसके समर्थनमें जरा भी सन्देहके लिये स्थान नहीं 1 वादिराज और प्रभाचन्द्र प्रायः समकालीन हैं
प्रो. सा. ने आगे चलकर अपने इसी लेख में वादिराज से प्रभाचन्द्रको उत्तरकालीन बतलाया है और पार्श्वनाथचरित तथा रत्नकरण्डकटीकामें तीस पैंतीस वर्षका अन्तर प्रकट किया है। जहाँ तक इन रचनाओं के पौर्वापर्यका प्रश्न है उसे हम मान सकते हैं, पर यह तथ्य भी अस्वीकार नहीं किया जासकता है कि 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग करने वाले ये दोनों ही आचार्य प्रायः समकालीन हैं' - श्राचार्य वादिराज प्रो. सा. के मतानुसार ही धारानरेश भोजदेव (वि० सं० १०७५-१११०) को पराजित करने वाले चालुक्यवंशी जयसिंह (वि० सं० १०८०) के समयमें हुए हैं और उन्होंने अपना पार्श्वनाथचरित वि० सं० ५ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने भी न्यायकुमुद द्वितीय भागकी अपनी प्रस्तावना ( पृ०५७) में इन दोनों श्राचायको समकालीन और समव्यक्तित्वशाली बतलाया है ।
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१०८२में रचा है तथा शेष रचनाएँ आगे पीछे रची होंगी । और प्रभाचन्द्र उक्त धारा नरेश भोजदेव एवं उनके उत्तराधिकारी परमारवंशी जयसिंह (वि० सं० १११२) दोनोंके राज्यकाल में हुए हैं तथा अपनी रचनाएँ इन्हींके राज्य- समय में बनाई हैं । अतः ये दोनों आचार्य प्रायः समकालिक ही हैं-यदि दस बीस वर्षका अन्तर हो भी तो उससे दोनोंके 'योगीन्द्र' पदके उल्लेखोंपर कोई असर नहीं पड़ता । और इसलिये प्रभाचन्द्र जिन पूर्व आचार्य अनुश्रुति आदि प्रमाणों के आधारपर उक्त 'योगीन्द्र' पदका उल्लेख अपने गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रके लिये करते हैं और रत्नकरण्डकको उसकी अपनी रत्नकरण्डक- टीका में 'योगीन्द्र' उपनाम विशिष्ट स्वामी समन्तभद्रकी रचना बतलाते हैं तो उनके समकालीन वादिराज भी अपने पार्श्वनाथ चरित आचार्य अनुश्रुति आदि प्रमाणों के आधारपर 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग स्वामी समन्तभद्रके लिये क्यों नहीं कर
सकते हैं ? और उसके द्वारा रत्नकरण्डकको उनकी कृति क्यों नहीं बतला सकते हैं ? इससे साफ़ है कि प्रभाचन्द्र की तरह वादिराजने भी 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग स्वामी समन्तभद्र के लिये ही किया है-अन्यके लिये नहीं ।
यदि प्रो. सा. का यही आग्रह अथवा मत हो कि वादिराजको उक्त 'योगीन्द्र' पदसे आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र से भिन्न ही दूसरा व्यक्ति रत्नकरडका कर्ता विवक्षित है, जिनकी योगीन्द्र' उपाधि थी और समन्तभद्र कहलाते तथा जो रत्नमालाकार शिवकोटिके गुरु थे तो मेरा उनसे अनुरोध है कि वे ऐसे व्यक्तिका जैन साहित्य में अस्तित्व दिखलावें । मैं इस बारे में पहले भी उनसे अनुरोध कर चुका हूँ और 'योगीन्द्र' उपनामके धारक कतिपय विद्वानोंको प्रदर्शित भी कर चुका हूँ, जिनमें एक भी रत्नकरण्डका कर्ता सिद्ध नहीं होता । परन्तु प्रो. सा. ने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया । सबसे बड़ी मजेकी बात यह है कि वे विद्यानन्द और वादिराज के मध्य में उक्त व्यक्तिका सीमा निर्धारण तो