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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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भद्रकी ही रचना बतलाई है। अतएव मैंने पिछले चरितमें जहाँ रत्नकरण्डको अप्रसिद्ध और अज्ञात लेखमें लिखा था कि 'प्रो. सा. ने वादिराजके उल्लेख योगीन्द्रकृत कहा है वहाँ रत्नकरण्ड-टीकामें उसे पर जहाँ जोर दिया है वहाँ प्रभाचन्द्र के सुस्पष्ट एवं अनेक जगह (प्रारम्भमें, मध्यमें और अन्तमें) स्पष्ट अभ्रान्त ऐतिहासिक उल्लेखकी सर्वथा उपेक्षा की है।' शब्दोंमें प्रसिद्ध और सुज्ञात स्वामी समन्तभद्रकी इसपर अब आप लिखते हैं कि 'प्रभाचन्द्रका उल्लेख रचना कही है । ऐसी हालतमें पाठक जान सकते हैं केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्डके का स्वामी कि वादिराजका उल्लेख स्पष्ट और अभ्रान्त हे या समन्तभद्र हैं, उन्होंने यह तो कहीं प्रकट किया ही प्रभाचन्द्रका ? और मैं यह पहले कह आया हूँ कि नहीं कि ये ही रत्नकरण्डके कर्ता आप्तमीमांसाके ये दोनों विद्वान प्रायः समकालिक हैं और इसलिये भी कर्ता हैं।
पार्श्वनाथ-चरितमें उसका रचनाकाल होनेसे उसका इस सम्बन्धमें ज्यादा कुछ न कहकर इतना ही उल्लेख स्पष्ट और अभ्रान्त तथा रत्नकरण्ड टीकाम कह देना पर्याप्त है कि स्वामी समन्तभद्र और आप्त- रचनाकाल न होनेसे उसके उल्लेख अस्पष्ट और मीमांसाकार दोनों अभिन्न हैं। इस बातको स्वयं भ्रान्त नहीं कहे अथवा बतलाये जा सकते हैं। प्रो० सा० भी अपने विलुप्त अध्यायमें स्वीकार कर अन्यथा ९० प्रतिशत ग्रंथ बिना रचनाकालके हैं और चुके हैं और जैन-साहित्यमें स्वामी समन्तभद्रसे तब उनके उल्लेख भी अस्पष्ट और भ्रान्त कहे जायेंगे। आप्तमीमांसाकारका ही सर्वत्र ग्रहण किया गया है। दूसरी बात यह है कि प्रभाच-द्रके उल्लेखोंके पोषक ऐसा एक भी उदाहरण जैन-साहित्यमें नहीं मिलता और समर्थक तो उत्तरवर्ती बीसियों उल्लेख प्रमाण अथवा प्रो० सा० ने उपस्थित किया है जहाँ 'स्वामी मौजूद हैं और जिनमें भी रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्र' से दूसरे (आप्तमीमांसाकारसे भिन्न ) समन्तभद्रकी कृति बतलाई है । परन्तु वादिराजके ग्रन्थकारका ग्रहण किया गया हो अथवा दूसरेका उल्लेखका पोषक एवं समर्थक एक भी उल्लेख उत्तरभी वह नाम हो । अतएव स्वामी समन्तभद्रके कालीन प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसमें रत्नकरण्डको नामोल्लेखस ग्रन्थकारोंका अभिप्राय आप्तमीमांसा- योगीन्द्रकृत बतलाया गया हो । यदि हो तो प्रो० सा० कारका ही स्पष्टतः रहा है और इसलिये प्रभाचन्द्र उसे उपस्थित करें। इससे साफ है कि प्रभाचन्द्रका जब रत्नकरण्डका का स्वामी समन्तभद्रको बतला उल्लेख वस्तुतः अभ्रान्त, स्पष्ट और ऐतिहासिक रहे हैं तब स्पष्ट है कि वे उसे प्राप्तमीमांसाकारकी महत्व युक्त है। अतः प्रो० सा० का यह लिखना कि ही कृति स्वीकार करते हैं क्योंकि वे दोनों एक हैं- 'प्रभाचन्द्रके जिस उल्लेखपर पण्डितजीने जोर दिया अलग-अलग नहीं ।
है व न तो सुस्पष्ट है, अभ्रान्त है और न उसका आगे चलकर आप कहते हैं कि वादिराजके कोई ऐतिहासिक महत्व है।' सर्वथा असङ्गत है और पार्श्वनाथचरितमें उमका रचनाकाल दिया हुआ है, वह केवल बदलेकी भावनाका प्रकाशन मात्र है। इसलिये उसका रत्नकरण्डकोयोगीन्द्रकृत बतलाने वाला रत्नकरण्डके उपान्त्य पद्यके श्लेषार्थपर विचारउल्लेख तो स्पष्ट और अभ्रान्त है । परन्तु रत्नकरण्ड- रत्नकरण्डके अन्तिम (१५८ वें) पद्यके पूर्व एक टीकामें उसका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, अतः निम्न पद्य आया है जिसमें ग्रन्थकारने उपसंहारउसका उल्लेख 'न तो सुस्पष्ट है, न अभ्रान्त है और रूपसे ग्रन्थमें वर्णित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और न उसका कोई ऐतिहासिक महत्व है। मुझे उनके सम्यक् चारित्र इन तीन रत्नोंके लिये आत्माके इम अतथ्य पक्षपातपूर्ण कथनपर कोई आश्चर्य नहीं है। पिटारी बना लेनेकी प्रेरणा की है और उसका फल परन्तु खेद है कि उन्होंने अपने पक्षकी पुष्टिमें सचाई तीनों लोकोंमें सब अर्थों की सिद्धिरूप बतलाया है। और न्यायको भी तिलाञ्जलि दे दी है। पार्श्वनाथ- यह पद्य इस प्रकार है: