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अनेकान्त
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कर देते हैं परन्तु उसके अस्तित्वका साधक एक है कि इन दोनों अवतरणोंकी प्रभाचन्द्र-कृत भी प्रमाण उपस्थित नहीं करते । ऐसी स्थितिमें शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित स्वपक्षस्थापनाविहीन और परपक्षालोचनमात्र चर्चा तुलना करने पर स्पष्ट मालूम हो जाता है कि (वितण्डा )से किसी भी वस्तुकी सिद्धि नहीं शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त टीकाओंको हो सकती है।
बनाया है।' इसके आगे शब्दाम्भोजभास्करका अवरत्नकरण्ड-टीकाके कतृत्वपर सन्देह और भ्रान्त
न तरण देकर पण्डितजीने पुनः लिखा है कि 'प्रभाचन्द्र
कृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर उल्लेख
आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका इसी सिलसिलेमें प्रो. सा. ने रत्नकरण्ड-टीकाके अक्षरशः सादृश्य है।' इन उद्धरणोंसे प्रकट है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र कर्तृ कत्वमें सन्देह प्रकट करते हुए न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीका रत्नकरण्डटीकाको एक भ्रान्त उल्लेख भी किया है। आप लिखते हैं कि उन्हीं प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत माननेका स्पष्ट मत है।। 'इसीसे न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीके मतानुसार गद्यकथाकोश और रत्नकरण्ड-टीकामं दी गई तो रत्नकरण्ड-टीकाके उन्हीं (प्रेमयकमलमार्तण्ड, अञ्जनचोर आदिकी कथाएँ तो अक्षरशः एकसी है ही, गद्यकथाकोश आदिके रचयिता) प्रभाचन्द्र कृत होने पर दोनोंकी साहित्यिक रचना भी एकसी है'-वही की सम्भावना अभी भी खासतौरसे विचारणीय है सरलता और वही विशदता दोनोंमें है । अतएव जब (न्या. कु. भा. २ प्रस्ता. पृ. ६७)। परन्तु जब हमने गद्यकथाकोशको प्रो. सा. प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र की कृति उनके निर्दिष्ट ग्रन्थको खोलकर उनके वक्तव्य के साथ मानते हैं तो रत्नकरण्डटीकाको भी उन्हींकी कृति उसका मिलान किया तो हमें आश्चर्य हुआ कि वे उन्हें मानना चाहिए । मैं इन ग्रन्थोंको प्रसिद्ध इतना भ्रमोत्पादक अधूग उल्लेख क्यों करते हैं और प्रभाचन्द्रकृत ही अन्य लेखमें सिद्ध करनेवाला हूँ। किसीके अपूर्ण मतको प्रकट करके पाठकोंको धाखेम प्रभाचन्टका उल्लेख सर्वथा असन्दिग्ध हैक्यों डाल रहे हैं ? पण्डितजीने वहाँ अपना क्या
प्रभाचन्द्रने रत्नकरण्डककी अपनी टीकाके मत दिया है, उसे देखनके लिये मैं पाठकोंसे प्रेरणा
प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें जो पुष्पिकावाक्य दिये हैं करता हूँ । उन्होंने उक्त प्रस्तावनाके पृ० ६६ के नीचे
उन सबमें उन्होंने रत्नकरण्डकको स्वामीसमन्तभद्रनं०२ की टिप्पणीमें 'रत्नकरण्ड' पर जो विस्तृत
कृत बतलाया है । इसके सिवाय. उन्होंने ग्रन्थारम्भम फुटनोट दिया है और जिसकी ओरसे प्रो. सा. ने
भी प्रथम पद्यकी उत्थानिकामें 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी"" बिल्कुल आँख मीच लो है, उसीमें पण्डितजीने अपना स्पष्ट मत प्रकट किया है। मुख्तार साहबकी
रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तकामी...................'
इत्यादि शब्दों द्वारा रत्नकरण्डकको स्वामी समन्तआलोचना करते हुए वहाँ उन्होंने लिखा है कि 'मुख्तार सा. ने इन टीकाओं (समाधितन्त्र और १ नमूनेके तौरपर इन ग्रन्थोंके निम्न मंगलाचरण पद्योंकी रत्नकरण्डकी टीकाओं) के प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न परस्पर तुलना कीजियेहोने जो प्रमाण दिये हैं वे दृढ़ नहीं हैं। रत्न- 'प्रणम्य मोक्षप्रदमस्त-दोषं प्रकृष्ट-पुण्य प्रभवं जिनेन्द्रम । करण्ड-टीका तथा समाधितंत्र-टीकामें प्रमेयकमल- वक्ष्येऽत्र भव्य-प्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धम् ||१|| मात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्ट
-गद्यकथाकोश लि. प. १ । शैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये 'समन्तभद्र निखिलात्मबोधनं जिनं प्रणम्याखिलकर्मशोधनम्। टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र की ही होनी चाहिए।' निबन्धनं रत्नकरण्डके परं करोमि भव्यप्रतिबोधनाकरम् ॥१॥' आगे ग्रन्थोल्लेखोंको उपस्थित करके उन्होंने और लिग्वा
-रत्नकरण्ड-टीका पृ. १ ।