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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है
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(९) 'योगिनश्व...'-पत्र ११, पृ. पं. ४। १८८२में रचा है तथा शेष रचनाएँ आगे पीछे रची (१०) 'योगी बहिराकारितः । '-प. ११, उ. पं. १। होंगी। और प्रभाचन्द्र उक्त धारानरेश भोजदेव एवं
(११) 'योगिनोऽद्यापूर्वा मूर्तिर्वर्त्तते .......... - उनके उत्तराधिकारी परमारवंशी जयसिंह (वि० मं० प. ११, उ. पं. २।
१११२) दोनोंके राज्यकालमें हुए हैं तथा अपनी (१२) 'भो योगिन'प. ११, उ. पं. ८ । रचनाएँ इन्हींके राज्य-समयमें बनाई हैं। अतः ये
(१३) 'योगी द्वारं दत्त्वा स्वयमेव भंजानो... दोनों प्राचार्य प्रायः समकालिक ही हैं—यदि दस प. १०, उ. पं. ६।
बीस वर्षका अन्तर हो भी तो उससे दोनोंके (१४) 'भो योगिन मृषावादीत्वं' प. १० उ. पं.७। 'योगीन्द्र' पदके उल्लेखोंपर कोई असर नहीं पड़ता। 'योगीन्द्र' पदके उल्लेख
और इसलिये प्रभाचन्द्र जिन पूर्व प्राचार्य-अनुश्रुति (१) 'भो योगीन्द्र ! किमिति रमवती तथैवो
आदि प्रमाणोंके आधारपर उक्त 'योगीन्द्र' पदका
उल्लेख अपने गद्यकथाकोशमं स्वामी समन्तभद्रकं लिये ध्रियते -प. १०, उ. पं. ३।
करते हैं और रत्नकरण्डकको उमकी अपनी रत्न(२) 'भो योगीन्द्र ! कुरु देवस्य नमस्कारं .'
करण्डक-टीकामें 'योगीन्द्र' उपनाम विशिष्ट स्वामी प. ११ उ. पं. ४।
समन्तभद्रकी रचना बतलाते हैं तो उनके समकालीन ऐसी दशामें प्रो. सा. के उक्त कथनका कुछ भी
वादिराज भी अपने पार्श्वनाथचरितमें उन्हीं पूर्व महत्व नहीं रहता। अत: यह भलीभाँति प्रमाणित है
आचार्य-अनुश्रुति आदि प्रमाणों के आधारपर 'योगीन्द्र' कि प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रके
पदका प्रयोग स्वामी समन्तभद्रके लिये क्यों नहीं कर लिये 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग हुआ है और इसलिये
सकते हैं ? और उसके द्वारा रत्नकरण्डकको उनकी मुख्तार मा. के पूर्वोक्त प्रतिपादन और हमारे उसके
कृति क्यों नहीं बतला सकते हैं ? इससे साफ है कि ममथनम जरा भा सन्दहक लिय स्थान नहीं है। प्रभाचन्द्रकी तरह वादिराजने भी 'योगीन्द्र' पदका वादिराज और प्रभाचन्द्र प्रायः समकालीन हैं- प्रयोग स्वामी समन्तभद्रके लिये ही किया है-अन्यके
प्रो. सा. ने आगे चलकर अपने इसी लेखमें लिये नहीं । वादिराजस प्रभाचन्द्रको उत्तरकालीन बतलाया है
यदि प्रो. सा. का यही आग्रह अथवा मत हो कि और पार्श्वनाथचारत तथा रत्नकरण्डकटीकामें तीम वादिराजको उक्त 'योगीन्द्र' पदसे प्राप्तमीमांसाकार पैंतीस वर्षका अन्तर प्रकट किया है। जहाँ तक इन स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न ही दूसरा व्यक्ति रनरचनाओंके पौर्वापर्यका प्रश्न है उसे हम मान सकते
करण्डकका कर्ता विवक्षित है, जिनकी योगीन्द्र' हैं. पर यह तथ्य भी अस्वीकार नहीं किया जासकता उपाधि थी और समन्तभद्र कहलाते थे तथा जो
कि योगीन्द्र' पदका प्रयोग करने वाले ये दोनों ही रत्नमालाकार शिवकोटिके गुरु थे तो मेरा उनसे आचार्य प्रायः समकालीन है'-आचार्य वादिराज अनुरोध है कि वे ऐसे व्यक्तिका जैन साहित्यमें प्रो. सा. के मतानुसार ही धारानरेश भोजदेव अस्तित्व दिखलावें । मैं इस बारेमें पहले भी उनसे (वि.सं०१८७५-१११०) को पराजित करने वाले
ले अनुरोध कर चुका हूँ और 'योगीन्द्र' उपनामके चालुक्यवंशी जयसिंह (वि० सं० १८८०) के समयमें धारक कतिपय विद्वानोंको प्रदर्शित भी कर चुका हूँ, हुए हैं और उन्होंने अपना पाश्वनाथचरित वि० सं० जिनमें एक भी रत्नकरण्डका कर्ता सिद्ध नहीं होता। १ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने भी न्यायकुमुद द्वितीय परन्तु प्रो. सा. ने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया । भागकी अपनी प्रस्तावना (प्र०५७) में इन दोनों प्राचार्यो- सबसे बडी मजेकी बात यह है कि वे विद्यानन्द और को समकालीन और समव्यक्तित्वशाली बतलाया है। वादिराजके मध्य में उक्त व्यक्तिका सीमा-निर्धारण तो
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