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किरण १०.११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
आप कहें कि फिर उन्हें साहित्यिकोंने तार्किक, वादी, 'देव' पदसे उन्हींका उल्लेख पार्श्वनाथचरितमें किया कवि और वाग्मीरूपसे ही क्यों उल्लेखित किया- है, निर्बाध प्रतीत नहीं होता; क्योंकि वादिराजने वैयाकरणम्पसे भी क्यों उल्लेखित नहीं किया ? प्रमाणनिर्णय और न्यायविनिश्चयविवरणमें 'देव' पदप्रो. सा. मुझे माफ करें, यदि आपने खोज की होती का प्रयोग अकलङ्कदेवके लिये भी अनेक जगह किया तो आपको वह उल्लेख भी मिल जाता जहाँ है और इसलिये विनिगमनाविरहसे उक्त 'देव' पदका साहित्यिकोंने स्वामी समन्तभद्रको 'वैयाकरण' भी वाच्य देवनन्दि (पूज्यपाद) को नहीं बतलाया जा सकता बतलाया है। नीचे मैं आचार्य प्रभाचन्दके गद्यकथा- है। हाँ, यह प्रश्न होसकता है कि फिर पार्श्वनाथकोशका वह उद्धरण उपस्थित करता हूँ जहाँ उन्होंने चरितमें देवनन्दिका उल्लेख किस पद द्वारा ज्ञात स्वामी समन्तभद्रको 'व्याकरणशास्त्रव्याख्याता' रूप किया जाय? इसका उत्तर यह है कि किसी ग्रन्थकारसे भी स्पप्रत: उल्लेखित किया है।
के लिये यह कैद नहीं है कि उसे अपने पूर्ववर्ती समस्त "दक्षिणका-यां तर्क-व्याकरणादि-समस्तशात्र
आचार्योंका उल्लेख करना ही चाहिये । अन्यथा,
यह भी प्रश्न होसकता है कि जिस प्रकार जैन व्याख्याता दुर्द्धरानेकानुष्टानानुष्ठाता श्रीसमन्तभद्र- साहित्यके दो महारथियों-हरिवशपुराणके कर्ता म्वामिनाममहामुनिस्तीव्रतरदु : ग्वादप्रबलासद्वद्यकर्मोद- तथा आदिपुराणके कर्ताने देवनन्दिके उल्लेख के माथ यात्सनुत्पन्नभस्मकन्याविना अहर्निशं सम्पीड्यमान- प्रख्यात आचार्य सिद्धसन और वीरसेनका उल्लेख श्चिन्तयति
किया है उसी तरह यदि वादिराजने देवनन्दिका
उल्लेख किया है तो उन्होंने उनके साथ इन प्रख्यान यह ध्यान रहे कि इस उल्लेखमं तकशास्त्र- दो आचार्यों-सिद्धसेन और वीरसेनका उल्लेख क्यों व्याख्याताके तकशात्र-निमाता अर्थकी तरह व्याकरण- नहीं किया ? देवनन्दिकी तरह इनका भी उल्लेख शास्त्रव्याख्याताका भी व्याकरणशास्त्र-निमाता अथ है। होना आवश्यक था? अतएव अपने पर्ववर्ती किसी प्रभाचन्द्रके अनुमा ब्रह्म नमिदत्तने भी उन्हें प्राचार्यका उल्लेख करना न करना ग्रन्थकारकी रुचि वैयाकरण प्रकट किया है । और इसलिये इन उल्लेखोंसे पर निर्भर है। अतः वादिराजने 'देव' पदकं द्वारा स्पष्ट है कि साहित्यिकांन स्वामी समन्तभद्रको स्वामी समन्तभद्रका ही उल्लेख किया है। क्योंकि आगे वैयाकरणरूपसे भी उल्लेखित किया है।
पीछेक दानों पद्य उन्हींस सम्बन्धित हैं और यह ___ अतः वादिराजकृत पार्श्वनाथचरितमें 'देव' अन्य प्रमाणांसे सिद्ध है तथा एकसं ज्यादा-दो और पदका वाच्य स्वामी समन्तभद्रको माननमें तीसरा तीन आदि पद्योंमें किमी आचार्यविशेषका स्मरण हेतु भी बाधक नहीं है और इमलिये मेरा और करना अयुक्त एवं असङ्गत भी नहीं है। आचार्य मुख्तार साहबका उक्त निर्णय न नो कच्चा है और न जिनसेनने आदिपुराणम, वीरसेनका कवि हस्तिमल्लने केवल वसुनन्दिवृत्तिका 'समन्तभद्रदेव' मात्र उल्लेख विक्रान्तकौरवमें और अय्यपायने अपने जिनेन्द्रही उसमें प्रमाण है; क्योंकि उपयुक्त विवेचन तथा कल्याणाभ्युदयमें स्वामी ममन्तभद्रका एकसे अधिक पं० आशाधरजी, आचार्य जयसेन, नरेन्द्रसेन आदिके पद्योंमें म्मरण तथा यशोगान किया है । अतः प्रो. सा. सुस्पष्ट अन्य उल्लेख भी उसमें प्रमाण है।
का 'देव' पद-सम्बन्धी उक्त कथन बहुत ही शिथिल ___ यह दूसरी बात है कि जैन साहित्यमें 'देव' पद और गम्भीर विचारसे शून्य प्रमाणित होता है । सं देवनन्दि पूज्यपादका भी एक दो जगह उल्लेख किया (२) अब हम उनकी 'योगीन्द्र' पदवाली दूसरी गया है, परन्तु 'जैनेन्द्र' व्याकरणका स्पष्ट नामोल्लेख बातको भी लेते हैं। उसमें निम्न दो बातें साथमे न होने के कारण यह कहना कि वादिराजने भी विचारणीय हैं