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अनेकान्त
[ वर्ष ८
__(क) एक तो यह कि हमने और मुख्तार सा. पदका उल्लेख स्पष्टत: आया है जैसा कि आगे ने जिस आधारसे योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख बतलाया जा रहा है। ऐसी हालतमें प्रो. सा. का प्रभाचन्द्रकृत (गद्य-कथाकोश-गत) स्वीकार किया यह लिखना कि 'उक्त दोनों विद्वानों में से किसी है वह आधार प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय है एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोश स्वयं अथवा नहीं ?
देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किसीसे (ख) दूसरी यह कि प्रभाचन्द्रके गद्यकथाकोश- सुना आदि' बिल्कुल वाहियात है और उससे उनके में उक्त उल्लेख वस्तुतः मौजूद है या नहीं ? प्रयोजनका जरा भी साधन नहीं होता। प्रत्युत
(क) पहली बातके सम्बन्धमें मेरा निवेदन है कि इससे उनकी अविचारताका प्रदर्शन होता है । अतः प्रेमीजी जब ब्रह्म नेमिदत्तकी कथाको प्रभाचन्द्रक हमारा आधार कच्चा नहीं है-वह पूर्णतः सुदृढ़ है गद्यकथाकोश परसे स्वयं-दूसरोंके द्वारा भी नहीं- और इसलिये वह प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय है। मिलान करके पूर्ण असन्दिग्ध शब्दों में यह लिखें कि यह श्रागेके प्रमाणसे भी सिद्ध और सुस्पष्ट है। "दोनों कथाओंमें कोई विशेष फर्क नहीं है, नेमिदत्तकी (ख) यद्यपि प्रेमीजीके उक्त लेखपर हमारा दृढ कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनवाद विश्वास था, परन्तु प्रो. सा. के आग्रह और वहमहै।" तो उनके कथनको प्रमाणभत एवं विश्वसनीय को देखते हुए उनके सन्तोषार्थ हमने गत जनवरी कैसे नहीं माना जा सकता है ? हम नहीं समझते सन् १९४६ में ही श्रद्धेय प्रेमीजीसे प्रभाचन्द्रक उक्त कि प्रो. सा. बिना किसी विरोध-प्रदशनके प्रेमीजीके गद्यकथाकोशको भेजनेकी प्रार्थना की और उन्होंने उक्त लेखको क्यों अप्रमाण, अविश्वसनीय अथवा उसी समय उस हमारं पाम भेज दिया। जैसाकि सन्दिग्ध प्रकट कर रहे हैं ? केवल वह लेख बीस वर्ष निश्चित किया गया था, इस ग्रथम प्रभाचंद्रने पुराना हो जानेसे ही अप्रमाण एवं अविश्वसनीय योगीन्द्र' शब्दका म्वामी समन्तभद्रके लिये स्पष्टतः
और सन्देहका कारण नहीं बन सकता है। अन्यथा प्रयोग किया है वह भी एक ही जगह नहीं, बल्कि काई भी पुराना लेख अथवा ग्रन्थ प्रमाण और दो जगह और १४ जगह तो उनके लिये 'योगी' विश्वसनीय नहीं हो सकेगा। मान लीजिये कि उक्त शब्दका भी प्रयोग किया है । यथाप्रभाचन्द्रका गद्यकथाकोश हमने अथवा मुख्तार मा. 'योगी' पदके उल्लेखने स्वयं नहीं देखा। पर उसे एक प्रामाणिक व्यक्तिने (१) 'योगिलिंगं धृत्वा वाणारस्या...-प. ९। स्वयं अच्छी तरह देखा, जाँचा, पढ़ा और पारायण (२) 'योगिना चोक्तमस्त्येव...'-पत्र १८ पं. ४। किया है और वह हमें लिखे कि नेमिदत्तका (३) 'ततस्तत्रत्यलोक राज्ञः कथितं देव ! कथाकोश प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशका प्रायः पर्ण योगिनैकेन भवदीय...-पत्र १० । अनुवाद है और हम इस आधारसे यह निष्कर्ष (४) 'ततो योगी भणितो...-पत्र १०, पं.८ । निकालें कि 'जब प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशपरसे (५) 'योगी न किंचिद्देवमवतीर्य भोजयति...पूर्णतः (शब्दशः और अर्थशः) अनुवादित नेमिदत्तकं प. १० उ. पं. ७। । कथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' (६) 'योगिनोक्तं मदीयनमस्कारमसौ सोदु न पद उपलब्ध होता है तो वह प्रभाचन्द्रके गद्य- शक्नोति"'-प. १०, उ. पं. ९। कथाकोशमें भी उनके लिये आया है, यह कहनमें (७) 'ततो योगिनोक्तं प्रभाते सामथ्र्य..." कोई आपत्ति नहीं है तो इसमें क्या अनहोनी और पत्र ११ पृ. पं.२। कच्चापन है ? जब कि हम देख रहे हैं कि प्रभाचन्द्रके () 'योगिनं देवग्रहमध्य प्रक्षिप्प...'-प. ११, गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रकं लिय 'योगीन्द्र' पू. पं. ३।