________________
४१८
अनेकान्त
[ वर्ष ८
"श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । परमात्मदेवकी तरह स्वामी समन्तभद्रदेवके लिए भी प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः ॥" ।
। नमन करना इट है। वास्तवमें 'देव' शब्द पूज्य
अर्थका वाची है और उसका स्वामी समन्तभद्र जैसे (४) डा. ए. एन. उपाध्ये कोल्हापुरके अनुग्रह- महान पूज्याचार्य के लिये साहित्यिकों द्वारा प्रयुक्त से मुझे Bhandarkar Oriental Rescarch होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । अकलङ्क, Institute पूनासे 'आप्तमीमांसा' मूलकी कुछ विद्यानन्द जैसे महान आचार्योंने भी अष्टशती, प्रतियाँ प्राप्त हुई थी
अष्टसहस्री आदि अपनी टीकाओंमें 'येनाचायई० सन १६९५) की लिखी हुई एक अढ़ाई सौ वष समन्तभद्रयतिना। तस्मै नमःसन्ततम्'आदि शब्दों द्वारा प्राचीन प्रति भी है। इस प्रतिके अन्तिम पुष्पिका स्वामी समन्तभदको सश्रद्ध नमस्कार करके उनकी वाक्यमें भी 'समन्तभद्र' के साथ 'देव' उपपद जुड़ा पूज्यता व्यक्त की है। अतः प्रो. सा. का दूसरा हेतु हुआ है । वह पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है:- भी असिद्ध और युक्तिहीन है। __ "इति फेणामंडलालंकारस्योरुगपुरस्याधिपमूनाश्च (ग) तीसरे हेतुके सम्बन्धमें हम भी यह प्रश्न स्वामिसमन्तभद्रदेवस्य मुनेः कृतावाप्तमीमांसालंकृतौ उठा सकते हैं कि वादिराजने अपने उक्त पार्श्वनाथदशमः परिच्छेदः ॥१०॥"*
चरितमें ही उसके २९वें पद्य विशेपवादीके कौनसे
विशेषाभ्युदय ग्रन्थका मङ्कत किया है ? यदि आप इन उल्लेखोंसे प्रकट है कि स्वामी समन्तभद्र कह कि वह आज अनुपलब्ध है तो हम भी कह साहित्यकारोंमें 'देव' उपनामसे भी प्रसिद्ध थे और सकते हैं कि वादिराजन स्वामी समन्तभदक जिस इसलिये साहित्यकार उन्हें 'समन्तभद्रदेव' 'समन्त
शब्दशास्त्रका उल्लेख किया है वह आज अनुपलब्ध भद्राचार्यदे कंवल 'देव' रूपमें उल्लेखित
| उल्लाखत है। पूज्यपाद-देवनन्दिने तो अपन जैनेन्द्र व्याकरणमें
यामिन नाप जैन या करते पाये जाते हैं। ऐसी हालतमें प्रो. मा. का यह 'लङः शाकटायनम्य' इस सूत्रकी तरह 'चतुष्टयं कहना कि 'म्वामा समन्तभद्र माहात्यका म दव समन्तभद्रस्य' इस सुत्रद्वारा उनके शब्दशास्त्रका उपनामसे प्रसिद्ध नहीं है' सर्वथा भ्रांत और उलेख भी किया है। वादीसिंहकी गदचिन्तार्माणम निगधार है-उसका अनुसन्धान एवं खाजसे काई उन्हें 'सरस्वतीकी स्वच्छन्द विहारभूमि' और समन्तमम्बन्ध नहीं है। वसनन्दिकी उक्त देवागमवृत्तिम भद्रके एक परिचय-पद्य सिद्धसारस्वत' भी कहा आया हुश्रा 'समन्तभद्रदेव' शब्द भी प्रो. मा. के सभी
गया है, जिनके प्रकाशमें यदि हम वादिराजमूरि के मतानुसार जब यमक और परमात्मदेवक माथ 'अचिन्त्यमहिमा देवः शब्दाश्च येन सिद्धान्त' श्लेषका सूचक है तो वह स्वामी समन्तभद्रका भी पद्यको पढें तो स्पट्र ज्ञात होजाता है कि स्वामी बोधक है-उसका निराकरण नहीं हो सकता है। समन्तभद्र अलौकिक शब्दशास्त्री भी थे और उनका हाँ, यदि देवागमवृत्तिसे भिन्न दूसरे प्रथम उक्त पद कोई शनशास्त्र जरूर रहा है। वादिराजका यह एक
आता और वहाँ केवल 'देव' पद ही होता- चमत्कारपूर्ण कला भी हो सकती है कि उन्हान 'ममन्तभद्रदेव' नहीं तो सम्भव था कि उससे समन्त- 'स्वामिनश्चरित' और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' पद्यांक भद्रस्वामीका बाध न किया जाता । चूँकि उक्त मध्यमें उक्त पद्यको रखकर उसमें 'देव' पद द्वारा स्वामी 'समन्तभद्रदेव' पद स्वामीसमन्तभद्रके 'देवागम' समन्तभद्रकी सूचना की है, जिसके द्वारा प्रकारान्तरसे पर लिखी गई टीकामें उसके टीकाकारने दिया है देवर्नान्दका भी सूचन होजाता है । इसके सिवाय, उनके इसलिये यह पूर्णतः निश्चय है कि उसके द्वारा उन्हें द्वारा कोई व्याकरणशास्त्र (प्राकृत अथवा संस्कृत) के .यह पुष्पिकावाक्य ज्यों का त्यों दिया गया है।
बनाये जाने की अनु ति भी विद्वानों में प्रचलित है। यदि