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अनेकान्त
उदाहरण देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिके अन्त्यमङ्गलका निम्न पद्य है :
समन्तभद्रदेवा परमार्थविकल्पिने । समन्तभद्रदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने || और इसलिये उक्त (पार्श्वनाथ चरितगत ) मध्यवर्ती (१८वें श्लोक में आये हुए 'देव' पदके वाच्य समन्तभद्र भी होसकते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है।' ब्रह्म नेमिदत्तने अपने 'आराधना कथाकोश' में समन्तभद्रकी कथाका वर्णन करते हुए, जब योगिचमत्कार के अनन्तर समन्तभद्रके मुखसे उनके परिचय के दो पद्य कहलाये हैं तब उन्हें स्पष्ट शब्दों में 'योगीन्द्र' लिखा है', जैसा कि निम्न वाक्यसे प्रकट है
[ वर्ष ८
करण्डश्रावकाचार' की टीका के कर्ता हैं । अतः स्वामी समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' विशेषरण के प्रयोगका अनुसंधान प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी रचनाके समय अथवा वादिराजसूरिके पार्श्वनाथचरितको रचना से कुछ पहले तक पहुँच जाता है ।'
" स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः समुवाच सः ।" ब्रह्म मित्तका यह कथाकोश आचार्य प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशके आधारपर निर्मित हुआ है, और इसलिये स्वामी समन्तभद्रका इतिहास लिखते समय मैंने प्रेमीजीको उक्त गद्यकथाकोशपर से ब्रह्म नेमिदत्त वर्णित कथाका मिलान करके विशेषताओंका नोट कर देनेकी प्रेरणा की थी । तदनुसार उन्होंने मिलान करके मुझे जो पत्र लिखा था उसका तुलनात्मक वाक्योंके साथ उल्लेख मैंने एक फुटनोटमें उक्त इतिहास के पृ० १०५, १०६पर कर दिया था । उसपर से मालूम होता है कि— “ दोनों कथाओं में कोई विशेष फर्क नहीं है । नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद है ।" और जो साधारणसा फर्क हैं वह उक्त फुटनोट में पत्रकी पंक्तियोंके उद्धरण द्वारा व्यक्त है । अत: उस परसे यह कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रको ‘योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित किया है। चूंकि प्रेमीजी के कथनानुसार ये गद्यकथाकोशके कर्ता प्रभाचन्द्र भी वे ही प्रभाचन्द्र हैं जो प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और 'रत्न१ इसके अलावा इस ग्रन्थमें और भी अनेक जगह 'योगीन्द्र' का प्रयोग है । देखो, वही ग्रन्थ ।
मुख्तार सा. के इस सप्रमाण कथनसे अपनी सहमति प्रकट करते हुए हमने पिछले (द्वितीय) लेख में लिखा था
'मुख्तार साहबका यह प्रमाणसहित किया गया कथन जी को लगता है और अब यदि इन तीनों लोकोंके यथास्थित आधारसे भी यह कहा जाय कि वादिराज देवागम और रत्नकरण्डकका एक ही कर्ता - स्वामी समन्तभद्र मानते थे तो कोई बाधा नहीं है— दो श्लोकोंके मध्यका व्यवधान भी अब नहीं रहता ।'
इसपर प्रो. सा. लिखते हैं- 'किन्तु मेरा पण्डितजी से कहना है कि उक्त बात उनके जी को भले ही लगे, परन्तु बुद्धि और विवेक से काम लेने पर आपका निर्णय बहुत कच्चा सिद्ध होता है । पार्श्वनाथ चरितके जिस मध्यवर्ती लोकमें देवकृत शब्दशास्त्रका उल्लेख आया है उसे समन्तभद्रपरक मान लेने में केवल वसुनन्दि वृत्तिका 'ममन्तभद्रदेव' मात्र उल्लेख पर्याप्त प्रमाण नहीं है। एक तो यह उल्लेख अपेक्षाकृत बहुत पीछे का है । दूसरे, उक्त वृत्तिके अन्त्य मङ्गलमें जा वह पद दो बार आगया है उससे यह सिद्ध नहीं होता कि स्वामी समन्तभद्र 'देव' उपनाम से भी साहित्यिकोंमें प्रसिद्ध थे । वहाँ परमात्मदेवके साथ लेपका कुछ चमत्कार दिखलानेतो उस पदको दो बार प्रयुक्त कर यमक और का प्रयत्न किया गया है। तीसरे, समन्तभद्रको उक्त 'देव' का वाच्य बना लेनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस श्लोक में वादिराजने उनके कौनसे शब्दशास्त्रका संकेत किया है ?"
१ 'अनेकान्त' वर्ष ७, किरण ५-६ ।
२ पार्श्वनाथ चरित -१ सर्ग, १७, १८, १६ श्लोक ।