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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
[गत किरणसे आगे प्रो० सा० का विक्षोभ
गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्तिके समय पंडित विज्ञ पाठकोंको मालूम है कि मैंने अपने पिछले परमानन्दजी शास्त्रीको भी उन्होंने ऐसे ही विशेषणोंसे लेखोंम वादिराजके पार्श्वनाथचरितका रत्नकरण्डक सत्कृत किया था ! दूसरी बात यह कि वे तत्त्वचचोंके सम्बन्धी उल्लेख विवेचन-सहित उपस्थित किया था समयमै भी क्षोभयुक्त होजाते हैं, और इससे उनकी और उसके द्वारा यह प्रमाणित किया था कि रत्न- कमजोरी साफ जान पड़ती है। ऐसी हालतमें उनसे करण्डक पार्श्वनाथचरितके रचनाकाल (वि० सं०
तात्त्विक विचारकी आशा करना अथवा तथ्यरे बदन पहलेकी चना और उसका ग्रहणकी उम्मीद रखना व्यर्थ है। फिर भी हम उनके कत्ता उसमें 'यागिन्द्र' उपाधि द्वारा स्वामी समन्तभद लेखकी शेष बातोपर विचार करना अपना आवश्यक (आप्तमीमांसाकार) को बतलाया गया है। इस पर कत्तव्य समझकर निम्न पंक्तियाँ लिख रहे हैंप्रो० साल अपने उत्तर-लेखमें बहुत ही विक्षुब्ध हो इसके बाद अपनी प्रस्तुत चर्चाको समाप्त कर देंगे। उठे हैं और अपनी मर्यादासे बाहर हो गये हैं। हाँ, सौम्य और निष्पक्ष चचाके लिये हम सदैव लोकमें एक कहावत प्रसिद्ध है, कि 'खिसयानी बिल्ली प्रस्तुत रहगे। खम्भा नाचे' ठीक इसी कहावतको उन्होंने चरितार्थ
पार्श्वनाथचरितके उल्लेखपर विस्तृत विचारकिया है । जब उनसे मेरे लेखके मुद्दोंका युक्तिसंगत समाधान नहीं बन पड़ा तो वे कोसनेपर उतारू हो प्राचार्य वादिराजने अपना पाश्वनाथचरित शक गये और उन्होंने मुझे 'एक घोर पक्षपाती', 'न्यायके सं० ९४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया क्षेत्रमें बड़ा अयोग्य विचारक', 'न्यायशास्त्रका है। इसमें उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गृपिच्छादि अनेक दुरुपयोग करने वाला', 'बौद्धिक ईमानदारीमें विश्वास प्रसिद्ध आचार्यों और उनकी कुछ खास कृतियोंका का अपात्र', 'अनुमानके उत्कृष्ट नियमोंसे हीन- पद्य नं० १६ से ३० तक उल्लेख किया है। इन पद्योंमें व्यवसाय करने वाला', 'विक्षिप्तताकी ओर बढ़ने 'देव' और 'योगीन्द्र' के उल्लेखोंको छोड़कर शेप वाला,' 'भ्रान्तिरूपी अन्धकार वाला' जैसे स्वरुचि- उल्लेख तो प्रायः स्पष्ट है और इसलिये उनमें कोई विरचित सुन्दर विशेषणोंसे सत्कृत किया है ! मैं इन विवाद नहीं है। परन्तु 'देव' और 'योगीन्द्र'के दो विशेषणोंका पात्र हूँ या नहीं, यह विद्वान् पाठक उल्लेख ऐसे हैं जो कुछ अस्पष्ट हैं और इसलिये विद्वानोंजानते हैं। मैंने जो कुछ लिखा है वह और प्रो. सा. में उनके वाच्यार्थमें विवाद है। जैन-स हित्य और ने उसका जो उत्तर दिया है वह, दोनों विज्ञ पाठकोंके इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार सामने हैं और इसलिये वे निर्णय कर सकते हैं कि उनका वाच्यार्थ स्वामी समन्तभद्र (देवागमकार) को कौन कैसा है ? परन्तु प्रो. सा. की उक्त प्रवृत्तिसे दो मानते हैं और अपनी इस मान्यताके समर्थनमें वे बातें स्पष्ट हैं, एक तो यह कि उनका इस प्रकारसे प्रमाण देते हुए कहते हैं कि 'समन्तभद्र के साथ 'देव' कोसनेका यह कुछ चिरन्तनाभ्याससा जान पड़ता है- उपपद भी जुड़ा हुआ पाया जाता है, जिसका एक