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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
आगे चलकर 'योगीन्द्र' के सम्बन्धमें आप विद्वानों-प्रेमीजी' और मुख्तार सा.२–ने वसुनन्दिकहते हैं-'मुख्तार मा. तथा न्यायाचार्यजीने जिस का समय विक्रमकी ११वीं शताब्दी अनुमानित किया आधारपर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्रकृत है; क्योंकि मं० १०५० (सुभाषितरत्न मं०) के आचार्य स्वीकार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने अमितगतिने भगवती आराधनाके अन्तमें अपनी जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं उनसे जान आराधनाको वसुनन्दि योगीसे महित (सत्कृत) पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानोंमेंसे किसी एकने भी बतलाया है और इन वसुनन्दि योगी तथा देवागम अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोश स्वयं देखा है वृत्तिके कर्ता वसुनन्दिको प्रेमीजी और मुख्तार सा. और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किसीसे सुना कि ने अभिन्न सम्भावित किया है और इसलिये प्रभाचन्द्रकृत कथाकोशमें समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' देवागमवृत्तिकार वसुनन्दि अमितगति (वि० सं० शब्द आया है । केवल प्रेमीजीने कोई बीम वर्ष पूर्व १०५०, ई० ९९३) के समकालीन सिद्ध होते हैं। यह लिख भेजा था कि 'दोनों कथाओं में कोई विशेष ऐसी हालतमें वसुनन्दि (वि० सं० १८५०) के उक्त फर्क नहीं है, नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्य- उल्लेखको, जो वादिराजकं पार्श्वनाथचरित (वि० मं० कथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद है।' उमीके आधारपर १०८२) से पूर्वका है, वादिराज (वि० १८८२) के आज उक्त दोनों विद्वानांको “यह कहने में कोई आपत्ति पीछे ढकेलना अतिसाहस है। मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्य (ख) दूसरा हेतु भी मवथा अयुक्त एवं प्रसिद्ध कथाकाशमें स्वामी समन्तभन्द्रको 'योगीन्द्र' रूपमें है, क्योंकि स्वामी समन्तभद्र माहित्यिकोंमें 'देव' उल्लेखित किया है।
उपनामसे भी प्रसिद्ध रहे हैं। इसके लिये मैं 'देव' और 'योगीन्द्र' पदपर विचार
वसुनन्दिके उक्त उल्लेखके अलावा चार उल्लेखोंको प्रो. सा. की उक्त दोनों बातों पर हम नीचे और यहाँ उपस्थित करता हैं :विचार करते हैं
(१) पं० श्राशाधरजीने मागारधर्मामृत-टीका (१) सबसे पहले हम उनकी 'देव' शब्द वाली (पृ०८२)में समंतभद्र के लिये 'देव' पदका उल्लेख निम्न पहली बातको लेते हैं-'देव' शब्दका 'समन्तभद्रदेव' प्रकार किया है:अर्थ करने में आप केवल वसुनन्दि वृत्तिका 'समन्त- "एतेन यदुक्तं स्वामिसमन्तभद्रदेवैः-'दनिकस्तत्त्वपथभद्रदेव' मात्र उल्लेख पर्याप्त प्रमाण नहीं मानते। गृह्यः' इति दर्शनप्रतिमालक्षणं तदपि संगृहीतम् ।" इसमें आपने जो तीन हेतु दिये हैं उनमें पहला हेतु
(२) आचार्य जयसेनने 'समयमार' की अपनी तो बहुत ही कमजोर और बेदम है क्योंकि किसी
तात्पर्यवृत्तिमें स्याद्वादका स्वरूप बतलानेके लिए उल्लेग्वकं केवल पश्चाद्वर्ती होनेसे ही उसकी
'समन्तभद्राचार्यदेवः' पदके साथ समन्तभद्रके तीन प्रामाणिकता नष्ट नहीं होती और पूर्ववर्ती होनेसे
पद्योंको उद्धृत करते हुए लिखा हैही उसकी प्रामाणिकता नहीं पाती। प्रामाणिकताक लिये तो विरोधादि दोषोंका अभाव होना ही
__ "तदव स्याद्वादस्वरूपं तु समन्तभद्राचार्यदेवैरपि आवश्यक है और वसनन्दिके उक्त उल्लेख में भागतमाम्त ।" (पृष्ठ २११) विरोधादि कोई दोष नहीं है। तब उनके उस उल्लेख- (३) आचार्य श्रीनरेन्द्र मेनने भी अपने सिद्धान्तमें अस्वरस एवं सन्देह व्यक्त करना अनुचित है। सारसंग्रहमें स्वामी समन्तभद्रका 'देव' उपनामके दूसरे, वसुनन्दिके उक्त उल्लेखको वादिराजके साथ निम्नप्रकार स्मरण किया हैपार्श्वनाथचरितसे पीछेका बतलाना एक बड़ा भ्रम १ 'जैन साहित्य और इतिहाम'-पृप ४६३ । है । जैन साहित्य और इतिहासके दो महान २ पुरातन जैन-वाक्य-सूचीकी 'प्रस्तावना' ।