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महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित
[ ले०-५० परमानन्द जैन शास्त्री ]
महाकवि सिंह विक्रमकी १२वीं १३वीं शताब्दीके जाता है कि कविका सम्प्रदाय दिगम्बर था। ग्रन्थकी विद्वान थे। यह प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और उत्थानिका और वनशैली भी उक्त सम्प्रदायके देशी भापाके पण्डित थे। इनकी एक मात्र कृति कथा-काव्यों जैसी ही है :रूपमें प्रद्युम्नचरित (पज्जुएणचरिउ) नामका एक
विउलगिरिहि जिह हयभवकंदहो, खण्डकाव्य उपलब्ध है, जिसकी मंधियोंके पूर्वमें पाये जानेवाले संस्कृत पद्योंसे, जिनमें कविने अपना
समवसरगु, सिरिवीरजिाणंदहो। परिचय भी अङ्कित किया है, उनके संस्कृत विद्वान
गारवरखयरामरसमवाए, गगाहरुहानकी स्वतः सूचना मिल जाती है। उक्त ग्रन्थमें पुच्छिउ सेगियराए। प्राकृत और देशी भापाके शब्दोंका भी प्रयोग किया
मयरद्धयहो विणिज्जियमारहो, गया है और अपभ्रंश भाषाका तो वह ग्रन्थ है ही, जिसका परिचय आगे दिया जायगा। कविने स्वयं
कहहि चरिउ पज्जुगणकुमारहो। अपनको चार भाषाओं के विद्वान् होनेकी सूचना तं णिसुणे वि भगाइ गणेसरु, तेरहवीं मंधिक शुरूम पाय जानेवाले निम्न संस्कृत गियुगइ मेणिउ मगहगरेसरु ॥ पद्यम की है :
कविने अन्य किसी सुविकी सहायताके बिना जातः श्रीजिनधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थसप्रियो, ही इस काव्यकी रचना की है और अपनेको भवभाषाभिः प्रवगाश्चतुर्भिरभवच्छीसिंहनामा कविः । भेदनमें समर्थ, शमी तथा कवित्वगर्व सहित भी पुत्रो रल्हण-पण्डितस्य मतिमान् श्रीगूर्जरागोमिह प्रकट किया है । कविता करनेमें जिसकी कोई
समानता न कर सके, ऐसा असाधारण काव्य-प्रतिभादृष्टि - ज्ञान - चरित्रभूषिततनुवंशे विशाले ऽवनौ ॥ वाला विद्वान व्यक्त किया है। साथ ही यह व्यक्त ___ इस पद्यमें बतलाया है कि कवि सिंह जैनधर्म किया है कि वह वस्तुके सार-असार विचार करने में और कर्ममें अनरक्त थे और शास्त्रार्थ में सर्वप्रिय थे। सुन्दर बुद्धिवाला, समीचीन विद्वानाम अग्रणी. चार भापाओं (संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशी) सर्व विद्वानोंकी विद्वत्ताका सम्पादक, सत्कवि था; में निपुण थे। यह रल्हण पण्डितके, जो संस्कृत- उसीने शांतरस और आनन्दप्रद इस काव्य-ग्रन्थका प्राकृतरूप भापाद्वयमें निष्णात थे, बुद्धिमान पुत्र निर्माण किया है । इस समुल्लेखपरसे कविकी थे। और लोकमें विशाल गुर्जर कुलमें उत्पन्न हए प्रतिभाका सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है। थे। इनका शरीर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और १ साहाय्यं समवाप्य नात्र सुकवेः प्रद्यग्नकाव्यस्य यः । सम्यक्चरित्रसे विभूषित था।
कर्ताऽभूद् भवभेदनकचतुरः श्रीसिंहनामा शमो । यद्यपि ग्रन्थकर्ताने अपने सम्प्रदायका कोई उल्लेख साम्यं तस्य कवित्वगर्वसहितः को नाम जातोऽवनौ । नहीं किया। किन्तु ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण और उसकी श्रीमज्जैनमतप्रणीतमुपथ सार्थः प्रवृत्तं : क्षमः ।। गुरुपरम्परापर विचार करनेसे यह स्पष्ट मालूम हो
-चौदहवीं संधिके अन्त में ।