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अनेकान्त
[वर्ष ८
जोगिचर्या
[ इस जोगिचर्या' नामकी कविताको मैंने सन् १९४४ में एक गुटके परसे नोट किया था। इसके कर्ता मुनि ज्ञानचन्द्र हैं । इसमें अध्यात्म दृष्टिसे योगी अथवा साधुकी चर्याका सुन्दर एवं चित्ताकर्षक कथन किया गया है। चूँकि यह संसारी आत्मा अनादिकालसे अलख निरञ्जन
आत्माको भूल गया है, भ्रमवश चौरासी लाग्न योनियोंमें भटकता फिर रहा है भार राग-द्वेष अहङ्कार आदि विभाव परिणतियोंमें रत होकर स्वस्वरूपकी ओर अांख उठाकर भी नहीं देखता, इसीसे मुनि ज्ञानचन्द्र लिखते हैं कि-ग्रन्थ (परिग्रह) की इच्छा न करो, मोहकी वांछा भी मत करो, शुद्ध दिगम्बर बन जाओ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रय निधिसे वंटा खेलो और अन्तरात्माकी अोर देखो। इस आत्माका परमतत्त्व ही आधार है और शिवनगरी ही घर है श्रादि । इस प्रकार बहुत ही सरल शब्दोंमें उस सच्चिदानन्दरूप विज्ञान घन अात्माका ध्यान और उसकी प्राप्ति करनेकी प्रेरणा की गई है। साथ ही यह बतलाया गया है कि चित्परिचयके बिना केवल बाह्य तपश्चरणादिसे मुक्ति नहीं मिलती, वह तो स्वस्वरूपका ध्यान, चिन्तन एवं अनुधावन करनेसे सहज ही प्राप्त हो जाती है। इसी भावको व्यक्त करते हुए एक जगह लिखा है कि 'हे अात्मन् ! तू कायाका शोषण कर अात्मा पोषण कर, पूर्वीगोंका व्याख्यान कर, इंद्रियोंको दण्डित कर तथा इच्छानिरोधरूप तपसे शरीरको अलंकृत कर, जिन शासनको जान, तीर्थोंको जा, पूजा कर, जिस-तिसको मीस झुका, शरीरको क्षीण कर, बनमें निवास कर एवं निरन्तर ही भावना भा, परन्तु जब तक तू परमब्रह्म परमात्माका समभावोंसे अवलोकन नहीं करेगा। तब तक तुझे शिवपुर की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अस्तु, पुरातन हिन्दीकी यह कविता, अाशा है, अनेकान्तके पाटकोको रुचिकर होगी इसीसे आज इसे उनके सामने रखा जा रहा है।
-परमानन्द जैन]
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बूझहु हो तुम बूझहु भाई, बूझहु रयण-कहाणी । अलख निरंजणु जोईयउ हो, जागत रयणि विहाणी ।। १ ।। अप्पा झावहु आणु ण भावहु, चित्तपडल संसारू । समरसि होइ श्रादगुण जोवहु, जिम पावहु भव-पारू |॥ २ ॥ मण सुन्नउ करि काय सुण्णु करि, वयणु न बोलहि भाई ।। जोगु धरहि अप्पाणउ जोवहि, जिम कम्मक्खउ होई ॥ ३ ॥ सीस जटा अणुवेहा बारह, सीलदण्डु मुझ भावइ । सुद्ध भाव जोगउटा पहर उ, दुरिउ न नियडउ श्रावइ ।। ४ ।। जीव-दया नित कंथा पहरउ, आगम-विषय वषा (खा) णउ । वारह-विह-तउ-भस्म चडावहु, जोगु झाणु जिम जाणउ ॥ ५ ॥ दह-लक्खणमय वीणु बजावउ, तिसहि जग गुरु गावउ । पुण्ण-पाप-हेउ-नियडु न जाउ, इह मनुवउ मनि लावउ ।। ६ ।। सञ्चरु मंजमु दो मुझ भावहि, समकित सींगी वावउ । णाणु-माणु-दुइ-मुद्दा पहरउ, अलखु निरंजनु जोवउ ।। ७ ॥