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किरण १०-११ ]
सके और भाग खड़े हैं। क्या आप बतला सकते हैं कि बालक नग्न रहने पर भी किसीके मनमें विकार क्यों नहीं उत्पन्न करता ? इसलिए कि वह स्वयं निर्विकार है । एक पागलको नग्न देखकर आपके मनमें कामोत्तेजना क्यों नहीं होती ? इसलिए कि उसकी कामाभिलाषा नष्ट हो चुकी है। नङ्गा रहना सरल काम नहीं है मन्त्री महोदय ! यह बिरले योगियोंसे ही साध्य है। हमें ऐसे योगियोंके दर्शन अवश्य करना चाहिए ।"
'पर यह तो आपके धर्मके विरुद्ध है महाराज !" अन्य किसी तर्कके अभाव में बलिने धर्म की दुहाई दी । 'राजाका कोई धर्म नहीं होता मन्त्री महोदय ! प्रजाका धर्म राजाका धर्म है । मेरा वही धर्म जो मेरी प्रजाका है, मैं हर धर्म और हर जातिका संरक्षक है' राजाने मगर्व उत्तर दिया । राजाके इस दृढ़ उत्तरने मन्त्रियोंको निरुत्तर कर दिया। वे चुप खड़े एक दूसरे की ओर निहार ही रहे थे कि राजाने फिर कहा 'कुछ भी हो, आप लोगोंको मेरे साथ 'चलना होगा ।' और वह स्वयं चल दिया । मन्त्री भी अपना सा मुँह लिए राजाके पीछे पीछे चल दिए ।
रक्षाबन्धनका प्रारम्भ
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उपवनका सुहावना और शान्त वातावरण किसी भी सहृदय के मनको मोह सकता है। पशुगण जहाँ निर्द्वन्द्व यथेच्छ विचरण कर रहे हो, पक्षी जहाँ मधुस्वर में प्रेमालाप कर रहे हो, सरोवरांमं मछलियां निर्भय किलोल कर रही हो, स्नेह और वात्सल्यकी जहाँ धारा बह रही हो, द्वेष और ईपा जहाँ दृष्टिगोचर तो क्या कर्णगोचर भी न होते हो, ऐसे स्थान में यदि आप पहुँच जाएँ तो आपका चित्त सचमुच स्वस्थ हो जावेगा, हृदय प्रफुल्लित हो उठेगा | सांसारिक जञ्जालोंकी जञ्जीरॉक बन्धन अपने आप खुल जाएँगे और आप अपने को स्वतन्त्र अनुभव करेंगे। उपवन में पहुँचते ही वहाँकी शान्त सुन्दरताने राजाके मनको तो मोह लिया ही था फिर शान्तिकी मूर्ति वनके देवता आचार्यको देखकर तो वह श्रद्धासे नम्र हो गया । सुखकी सच्ची अनुभूतिका
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उसने साक्षात्कार किया । आचार्यको मस्तक झुकाकर वहीं बैठ गया ।
राजाके आनेके पूर्व ही आचार्यने अपने विशिष्ट ज्ञानसे जान लिया था कि इस नगरी में अनेक अप्रत्याशित उत्पान खड़े होमकते हैं, इसलिये सङ्घ सदस्यों सहित वे आहार, निद्रा, भय आदि वृत्तियोंसे निरपेक्ष हो ध्यानस्थ होगये थे । उनके इस मौनसे भी दुष्टप्रकृति मन्त्रियोंने अनुचित लाभ उठाना चाहा । मुनियोंके विरुद्ध राजाको भड़काने की चेष्टा करते हुए बलि बोला 'महाराज ये पक्के ढोंगा हैं' । राजाने बलिकं कथनपर कुछ ध्यान न दिया, चुप रहा । मन्त्री भला क्यों मानने चले, राजाको चुप देख वे और भी क्षुब्ध हो उठे, बलिने दुबारा आग उगली 'महाराज ये निरं अज्ञानी हैं और इसलिये वाकशून्य हैं | अपने अज्ञानको मौनके परिधानमं छिपानेका यत्न करनेपर भी ये बुद्धिमानोंकी आँखोंको धोखा नहीं दे सकते। आप जैसे नृपति इन्हें प्रणाम करें और इनके मुखसे 'आशीर्वाद के दो शब्द भी न निकले। इन्हें लोकव्यवहारका तो जरामा भी ज्ञान नहीं है श्रतएव मौन हैं।' राजाने सब शान्त चित्तमे सुन लिया पर जवाब कुछ न दिया । मुनियोंके प्रति वह इतना अधिक आकृष्ट होचुका था कि उनके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं सुन सकता था किन्तु साथ ही मन्त्रियोंको दुःख नहीं पहुँचाना चाहता था । चुपचाप वहांसे उठा और वापिस चल दिया ।
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"तुम्हारा कार्य अनुचित हुया बन्धु !" आचार्यने सौम्य स्वर में कहा ।
"कैसे देव ?" युवकमुनिने जिज्ञासा प्रकट की । "इसलिये कि दुर्जनोंके साथ विवाद किया" आचार्यने उत्तर दिया ।
"पर मैन अपने लिये ऐसा नहीं किया समाज और धर्मपर किए गए अनुचित आक्षेपोंका उचित उत्तर ही तो दिया है" युवक मुनिने सफाई दी । “मागमे दिवार उपस्थित होजानेपर उससे टकराने में