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किरण १०-१५ ]
रक्षा बन्धनका प्रारम्भ
कुल के मालूम होते हैं, कमरमें लटकती हुई उनकी यह न हो कि रहस्य खुन जाय और वधिकको अपने तलवारें उनकी वीरताका परिचय देती हैं पर उनका प्राणोंकी बलि देनी पड़े' एक साथ ही सबके मनमें इस प्रकार आधी रातमें सकम्प दबे पैरों चलना यही शङ्का उपस्थित होगई । 'इसे मारे कौन' अन्तमें किसी अनिष्टकी आशङ्का उत्पन्न कर देता है । या तो निश्चय हुआ कि चारों एक माथ ही प्रहार करें ताकि इन्हें गप्तचर होना चाहिये या डाकू अथवा इन्हींसे बदला चारोंका चूक सके और पापमें भी मब मिलते-जुलते कोई अन्य।
समभागी रहें। आगे चलकर तो ये चारों रुक गये और फुस- बिजलीके प्रकाशमें चार तलवारें चमक उठी । फुसाहट भी करने लगे। अरे यह क्या ! इन्होंने तो बम एक छपाकेका शब्द और मुनिका मुण्ड पृथ्वीपर अपनी तलवारें म्यानके बाहर निकाल लीं, तो क्या होगा पर यह क्या ? अरे उनके हाथ रुक क्यों गये ! ये किसीका वध करना चाहते हैं ? सम्भव है, लिये अरे वे तो हिलते डुलते भी नहीं, उनकी नमें तन गई आगे देखें, क्या होता है।
और किंकर्तव्य विमढस वे एक दमरको क्यों देख ___ आप समझ गये होंगे कि ये चारों व्यक्ति और रह है। अरं वे तो कीलित जैसे कर दिय गये हैं। कोई नहीं वही चार मन्त्री हैं जिनकी प्रतिशोधभावना ठीक है 'जाको रखे साइयाँ मार न मकता काय' । की प्राचार्य अकंपनने आशङ्का की थी । अपने पर बंचार समझ ही नहीं पाये कि उन्हें हा क्या गया अपमानका बदला अपमान करने वाले के प्राणोंसे है, उनका सामथ्य कहाँ लुन होगया? क्या वे स्वप्न चुकाने के लिये ही ये दुष्ट आधी रातमें इस प्रकार देख रहे हैं ? मामन खड़ा व्यक्ति पूर्ववत शान्त छिपते-छिपत यहाँ आपहुच है। राम राम ! उन ज्यांका त्यांनिश्चष्ट था। निरीह भाले तपस्वियोंपर ये अस्त्र कैसे चलेंगे। क्या उनकी रक्षा हो सकेगी। सुना ता है 'जाको गवे दिनभरकी गहरी वर्षा के अनन्तर मायङ्कालसे ही साइयाँ मार न सकता कोय' । और सामने यह कौन मेघ हट चुके थे। वर्षाकी काई सम्भावना नहीं रही निश्चल ठंठकी भाँति निश्चेष्ट खड़ा हुआ है, प्राकृति थी। राकाका पूर्णचन्द्र अपने माथियों को माथ लिये तो मनुष्य जैसी प्रतीत होती है। हाँ याद आया यह गगनकं विशाल क्रीडाङ्गणमें कीड़ा कर निकला था। तो वही युवक मुनि है । ओहो कैसी शान्ति और पृथ्वी दृधसे धाई जान पड़ती थी, आकाश-मण्डल मौम्यता झलक रही है इसके वदनपर । इसे जरा भी ज्योत्स्ना-ज्योतित था । आशङ्का नहीं, किञ्चित भय नहीं । केसा निर्भय ग्बड़ा वनप्रान्तम आचार्य सागरचन्द्र शयनका उपक्रम है, इसे नहीं मालूम कि इसके बधिक इससे दूर नहीं कर रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि अाकाशकी और
और मालूम भी हो तो वह डरने क्यों चला। जब दौड़ी। सर्वत्र शान्ति थी, शीतलता थी और थी कान्ति शरीरसे मोह नहीं तो डर काहे का।
माना आचार्यकं हृदयका प्रतिविम्ब ही विम्ब बन ___एकाकी मागमें ही अपने शत्रुको पाकर मन्त्रियों- गया था ऐस शान्त कान्तवातावरणम श्रवण नक्षत्र के हर्षका ठिकाना न रहा । उनका शत्रु उनके मामने की ओर दृष्टि जातं ही आचार्यके नत्रनक्षत्र काँप निःसहाय खड़ा हुआ है, उसके प्राण उनके उठे। 'श्रवण नक्षत्रका कम्पन किमा भारी अनिष्टकी हाथोंमें है, मरी मक्खीकी भाँति उसे मसल दिया सुचना है' यह विचार आते ही श्राचार्यकं सामने एक जासकता है। वे फूल उठे । 'हमारे अपमानका बदला करुण दृश्य सा उपस्थित होगया । चारों ओर अग्नि इसीके प्राण हैं' एकने उत्तेजित हो कहा और सबके धधक रही है, सड़े मांस, हड्डी श्रादि अपावन और सब आगे बढ़ आये । पर चोरका दिल होता कितना घृणित वस्तुओंको ईंधन बनाया जारहा है । वनके है? अपने साथीपर भी उसे शङ्का होती है। कहीं पशु-पक्षी त्रस्त हो यहाँ-वहाँ भाग रहे हैं और अग्निक