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अनेकान्त
[ वर्ष ८
आलस्य, शोक, भय, कुकथा, कौतुक (मज़ाक), युगमें जैन समाजकी भी कुछ विचित्र स्थिति थी। क्रोध, कंजूसी, अज्ञान, भ्रम, निद्रा (ग़फ़लत), श्वेताम्बर आम्नायमें यतियों और श्रीपूज्यांका तथा मद (ग़रूर) और मोह रूप १३ ठग मनुष्यके दिगम्बर सम्प्रदायमें भट्टारकोंका प्रभुत्व था। अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप स्वार्थके लिये ये भट्टारक और यति जन साधारणको रत्नत्रय धर्मको लूट लेते हैं, इन दोषोंकी उपस्थितिमें अन्धकारमें रखते थे। प्राकृत संस्कृत आदिका ज्ञान उसका धर्मरूपी धन नहीं टिक पाता, वे उसकी न होने और शिक्षा की व्यापक कमीके कारण मद्धम हानि ही करते हैं। ज्ञात नहीं कि इन दोपोंके लिय के सच्चे प्ररूपक प्राचीन श्राप ग्रन्थोंके पठन-पाठन काठिया शब्दका प्रयोग करने में कोई और प्राचीन का अभाव-मा था, और ये भट्टारक यति आदि
आधार था या नहीं, और इस प्रकार के 'त्रयोदश अपने उपदेशों, व्याख्यानों और धर्माज्ञाओंम धर्मका काठिया' या 'तेरह काठिया' शीर्पकसे अन्य प्राचीन- जैसा कुछ स्वरूप वर्णन करते. जो कुछ विधितर पाठ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती विधान बनाते और जनताको जैसा कुछ आदेश
सी भाषाम इसी विपयक प्रतिपादक देते वही उसके लिये 'बाबा वाक्यं प्रमाणम' उपलब्ध हैं या नहीं ? यदि ऐसा नहीं है, और यह होता था। कविवर बनारसीदासजीकी ही मौलिक सूझ है तो पण्डितवर्य बनारसीदामजी एक अत्यन्त उनकी प्रतिभाकी बलिहारी है और उनकी कल्पना प्रतिभाशाली कवि तो थे ही, वे एक सुशिक्षित अद्भत होने के माथ ही माथ प्रशंसनीय है। बहुभाषाविद् गम्भीर विद्वान और उत्कट समाज
कविवर पं० बनारसीदासजीका जन्म विक्रम सुधारक भी थे। सौभाग्यसे इन्हें पं० रूपचन्दजी, मं० १६४३ (मन १५८६ ई०) में जौनपुरमें हुआ अर्थमल्लजी, भगवतीदासजी, चतुभुजजी, कंवरपालथा। इनके. जीवनका अधिकांश आगराम व्यतीत जी, धर्मदासजी, आदि विद्वानों और शास्त्रज्ञोंका हा था, इन्होंने अपनी ५५ वर्ष तककी श्रायुका सम्पर्क भी मिला । समाजकं अज्ञान, धर्मकी दुर्गति हिन्दी पद्यबद्ध आत्मचरित 'अद्धकथानक'' के और भट्टारकों व यतियोंके अन्याय अत्याचारसं नामसे लिखा है । अतः हिन्दीके इम अनुपम और इनका चित्त बेचैन होगया । इन्होंने समयमार, उतने प्राचीन एकमात्र आत्मचरित्रम कविवरका प्रवचनसार, गोमदसारादि आप-ग्रंथांका अध्ययन सन १६४१ ३० (वि० सं० १६९८) तकका जीवन मनन किया, धमक वास्तविक स्वरूपको हृदयङ्ग वत्तान्त दिया हश्रा है, उसके पश्चात् वह कितने दिन किया और उसीका जोरोंक माथ प्रचार किया। जीवित रहे और क्या क्या कार्य किये कुछ लोकभाषा हिन्दीमें उन प्राचीन ग्रंथोंका अनुवाद ज्ञात नहीं। उनकी मृत्यु संभवतया सन् १६४४ ई० करनेका आन्दोलन उठाया, स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दक में हो गई थी।
प्रसिद्ध अथ समयसारका सरस छन्दबद्ध हिन्दीमें पण्डितजीके पूर्वज श्वेताम्बर सम्प्रदायके ललित और भावपूर्ण अपूर्व अनुवाद 'नाटक अनुयायी थे, ऐसा प्रतीत होता है; किन्तु इनके होश समयमार' के रूपमें किया। नवरस, अर्द्धकथानक, संभालनेके बाद तक इनके कुटुम्बमं धर्म शैथिल्य, बनारसी पद्धति, मोहविवक जुद्ध श्रीर नाममालाके मिथ्यात्व और वहमोका काफी प्रभाव था। उम अतिरिक्त ४७-४८ फुटकर उपयोगी पद्यबद्ध रचनाएं १ डा० माताप्रसादगुप्त द्वारा संपादित व प्रयाग वि०वि० की जिनमेंसे कुछ प्राचीन संस्कृत प्राकृत पाठों परसे
की हिन्दी सा० समिति द्वारा प्रकाशित । तथा पण्डित अनुदित हैं और कुछ उनकी स्वयं की मौलिक हैं, नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित और जैन ग्रन्थरत्नाकर और जो सब उपर्युक्त बनारसी-विलासमें मंग्रहीत कार्यालय बम्बईमें प्रकाशित ।
हैं। इनकी सभी रचनाओं में प्राचीन प्रमाणीक