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अनेकान्त
[ वर्ष ८
उपादाननिमित्तकी चीठी इनहींके दोहे
सिथल बन्ध जल तेलतेः, अरु मूरिष करसारः भैरूँ रामकली और बिलावल गचनिका पगिडत सो पुस्तक कहै:, इनसे रापु विचार ॥६॥ श्रासाउरी बरच धन्यासिरी सारंग गोरी
जैसे देख्यो मै ग्रन्थ मैंः, तैसो लिग्यो बनाय काफी ओर हिंडोलनां मलार यो मचनिका जे समुकेंगे ग्रन्थ मैंः, तिन्हकुं अति सुखदाय ॥७॥ पर उदोत करो भन्यनिकै हिरदै मैं बरधों
॥ श्रीरक्त ॥ कल्यांगामस्तु ।। शुभं भवतु ॥श्री।। बनारसीबिलास की रचनिका ॥३॥ यापि बनारसी-विलास, कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ दोहग
नहीं है, पर कविवरके स्वर्गवासके ठीक २५ दिनके ए बरने संपप सो, नाम भदे बिरतन्त । पश्चात उनकी वाणीके परम भक्त श्रीजगवीवनजीने इन्ह मैं गर्भित भेद बहू, तिनकी कथा अनन्त || वि० सं० १७०१ चैत्र सुदि ७ को सब रचनाओंको
एकत्रितकर इस नामसे घोषित किया है । प्रस्तुत महिमा जिनके वचनकी, कहीं कहां लों कोय।।
प्रतिमें आदि भागमें संगृहीत मभी ग्रन्थोंकी विस्तृत ज्यों-ज्यों मत विम्तारिये, त्यों-त्यो अधिकी होय ॥ सूची सवैयों में दी गई है। ये मवैये भी अनुमानतः
अन्त भाग--"इति श्री बनारसीदास कृत जगजीवनजीक ही बनाये हुए हांगे, क्योंकि बनारमीबनारमी-विलाम भाषा सम्पूर्ण ।। संवत् १७३८ वर्ष दास जैसे मार्मिक कवि इतने भ्रष्ट पद्योंकी रचना कार्तिक मासे शुक्ल पक्ष तिथि अष्टम्यां कर्मवाट्यां तो कदापि न करते। जिम प्रतिका परिचय यहाँ मोमवामरे लिखितोयं ग्रन्थ ममाप्तति समापोयं ग्रन्थ दिया जा रहा है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण और पाठों श्रीरामपुरा मध्ये भट्टार्काधिराज भट्टाक श्री पूज्य १०८ की दृष्टिस अध्ययनकी वस्तु है । इमकी नकल कीर्तिसागरसूरिन्द्रजी मुप्रसादता लिखितं गिप दिगम्बर मम्प्रदायक ही पण्डित द्वारा ग्रन्थ-संग्रहक दीपचन्द । शुभं भवतु श्रीरस्तु ।। कल्याणमस्तु ।" ठीक ३७ वर्ष बाद हुई है। प्रति बड़ी सुन्दर और
लिपि स्पष्ट तथा आकर्षक है । आदि और अन्त जलाद्रक्षे तैलाद्रक्षः, रक्ष सिथन बंधगातः
के पत्रोंपर सुन्दर नथा विभिन्न प्रकारके बेल-बृटे बने परहस्ते न दातव्यः, एवं बदति पुस्तिका ॥१॥ हुए हैं, जो इसके मौन्दर्यमें वृद्धि करते हैं। मालूम संबत सत्रहसै वरपः, अटतीसा परमानः । होता है कि यह प्रति किसीकी म्वाध्याय-पुस्तिका रही
है होगी, जैमाकि इसके चारों ओरके घिसे हुए पत्रोंसे कार्तिक शुदि तिथि अष्टमी, निसिपतिवार बखानि ॥२॥
विदित होता है। कहीं-कहींपर पाठ शुद्धि भी कर ना दिन यह पूरन भया, बानारसीबिलास दी है । मूल प्रति हमारे संग्रहमें है। मुनत श्रवन सुख उपजै, उपजै मन उल्लास ॥३॥
७-बनारमी-विलास (पत्र १०१;गुटका माइज़)आतम संमभावन कथा, करी बनारसीदास "संवत १७४१ वर्षे शाके १६०६ प्रवर्त्तमाने चैत्र मासे अध्यातम सेली प्रवीना, समझ नहीं विलास सित पक्ष प्रतिपदा तिथौ प्रहर्षण वामरे श्रीमतो रामपुराबरपुरन मैं लिग्वि, पूरन कीय चन्दः श्री म्तम्भतीर्थ सुतीर्थे (खम्बात बिन्दर) लिग्वितमिदं नाटिक सुनत बनारसी, होत अनन्द अनन्द ॥४॥ पुस्तकं ।। चिरंनन्दतु यावचन्द्राक्क मिति भद्रं भवतु ।। अति आनन्द विनोद में : पूरन कीनो ग्रन्थ यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, तादृशं लिखितं मया सहअतीन संग्व्या सबैः, परमागम की पन्थ ॥५॥ यदि शुद्धम-शुद्धंवा मम दोषो न दीयते ॥१॥
दाहग