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किरण १०-११ ]
कविवर बनारसीदास और उनके ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्रतियाँ
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होनेपर भी फवि बनारसीदासजीका क्षेत्र असीम दिया जा रहा है, जिनका निरीक्षण लेखकने स्वयं था। उनके साहित्यकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह किया है :-- है कि मानव-मात्र अपनी प्यास उनके आध्यात्मिक १-नाटक समयसार (१०' x ४"), पत्र संख्या संस्कृति-प्रवाहसे बुझा सकता है । साहित्य यदि ४२, पंक्ति १७, अक्षर ४७ । "इति श्री (प) रमागम
आत्म-कर्तव्यच्यूत मानबोंके धरातलको उच्च स्थान समैसारनाटक सिद्धान्त समाप्तं सम्पूर्णम ॥श्रीरस्तु।। प्रदान करनेमें सहायक नहीं होता, तो वह अपनी कल्याणमस्तु ॥ संवत् १७१७ वर्षे शाके १५८२ साहित्य संज्ञा ही खो बैठता है । कविवरने साहित्य- प्रर्वतमान अश्विन मासै कृष्ण पक्षे सप्तम्याम पुण्य के इस रूप पर विशेष तौरस ध्यान दिया है। हिन्दी- तिथौ शनिवामरे श्रीमचन्दगच्ले भटारिक श्री १०८ साहित्यका यह दभोग्य है कि कविवर बनारसीदास- शान्तिसरि विजैराज्य: ॥ श्रीयंमयात || श्रीमच्चं० जीका उचित आदर नहीं हो सका। हमारे चरित- पण्डित प्रवर गणि गजेन्द्र श्री श्री श्री श्री श्री श्री १०८ नायकने भारतीय दर्शनकी उच्चतम विचारधाराका
वम्तपालजी तत्मिक्ष (शिष्य) ऋष सदारङ्ग लिखितं प्रवाह तत्कालीन लोकभाषामें प्रवाहित कर संस्कृतान- श्री उदयपर मध्ये लिपित्वा ।। गुरु श्री वस्तपालजी भिज्ञ मानव-समाजको वास्तविक ज्ञान करानेका
प्रमादा ।। श्रीयंभूयात ।' प्रस्तुत प्रति ग्रन्थ-निर्माणके अनकरणीय प्रयास किया। कविवरने आप्त पुरुषा ४ वर्ष बाद लिखी गई है। अतः पाठोंकी दृष्टिसे द्वारा निर्मित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि आय शुद्ध और महत्वपूर्ण है । इसमें छन्द संख्या ७१८ दी भाषाओंके आप ग्रन्थोंको जनसाधारणकं लाभाथ गई है। यद्यपि उपर्युक्त ग्रन्थ बनारसीदासजीकी लोकभापामें प्रस्तुत किए एवं अपनी मौलिक विचार- रचना नहीं है. अपित श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-निमित धाराको लिपिबद्ध कर साढ़े चार दर्जनसे ऊपर ग्रन्थ 'समयपाहट तदपरि अमृतचन्द्राचार्य कृत आत्मख्याति निर्मित किए, जो हिन्दी-भापाकं भण्डारको
वृत्ति' एवं गजमल्लकृत बालावबोध' इन तीनोंको गौरवान्वित कर रहे हैं।
हृदयङ्गम करने के बाद इसे दोहा-सोरठा-अडिल्ल आदि बनारसीदासजीके ग्रन्थोंका प्रचार थोड़े समयमें
डि समयम हिन्दीके सुप्रसिद्ध छन्दों में लिखा है, तथापि कविवरने ही भारतके विभिन्न प्रान्ताम हो चुका था। यह अपना जो पाण्डित्य इस रचनामें व्यक्त किया है, वह उनकी लोकप्रियताका बहुत बड़ा प्रमाण
अपूर्व है । अतः मामान्यतया यह ज्ञात नहीं होता कि प्रतियाँ पाठ-भेद और तात्कालिक भापा-विज्ञानक ।
यह अनुवाद है । इसकी रचना शाहजहाँके समयमें गौलिक स्वरूपको समझनेमें बहुत सहायक होंगी।
आश्विन सुदि १३, सं० १६९३को आगरामें हुई । जिम कविके अस्तित्त्व-समयके बहुत वषों बादकी।
प्रस्तुत प्रति बद्रीदाम म्यूजियम कलकत्तामें सुरक्षित है। लिखित प्रतियोंमें यदि भाषा-विषयक विकृतियाँ दृध्रिगोचर हो, तो उनके मूल रूपको भापा-विज्ञानकी इस वृत्तिकी एक प्रति रॉयल एशियाटिक सोमाइटी, दृष्टिसे समझना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव भी बंगाल, कलकत्ता (ग्र० सं० १५००) सुरक्षित है । है। लोक-साहित्य जनताका साहित्य है। अतः जो इसमें लेग्वन-काल सूचक संवत्का लेख तो नहीं है, फिर कृतियाँ जिन प्रान्तोंमें प्रचलित होंगी, उनपर प्रान्तीय
भी लिपिसे अनुमान किया जासकता है कि इसका लेखन भाषाओंका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता, ममय १७वीं शताब्दीके बादका नहीं होमकता। इसमें जैसा कि मीरा, तुलसी, कबीर, दादू, नरसी, बहुनसे महत्वपूर्ण विषयोपर जो नोटम दिये हैं, वे बड़े विद्यापति आदिकी प्रचलित रचनाओंसे स्पष्ट है। मूल्यवान हानेके साथ-साथ ज्ञानवद्धक भी हैं। विद्वानोंको प्रस्तुत प्रबन्धमें बनारसीदासजोकं निमित समस्त चाहिए कि वे ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंका सम्पादन करके प्रन्थोंकी उन प्रतियोंका अति संक्षिप्त परिचय नीचे अवश्य ही उपयोग करें।
-लेखक