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किरण १०-११ ]
सम्पादकीय वक्तव्य
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पहुँचे। साथ ही. यह भी समझ लेना चाहिये कि भारतफी प्राचीन संस्कृतिका द्योतक है और उसकी संसारमें ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो किसी न विजयका चिह्न है । इसीसे विजयके अवसरपर उसे किसी रूप में मूर्तिकी पूजा-उपासना न करता हो- राष्ट्रीय पताकामें धारण किया गया है। वह जहाँ बिना मृति-पूजाके अथवा आदरके साथ मूर्तिको धार्मिक चक्रवर्तियोंकी धर्म-विजयका और लौकिक अपनाये बिना किसीका भी काम नहीं चलता । शब्द चक्रवतियोंकी लोक-विजयका चिह्न रहा है वहाँ और अक्षर भी एक प्रकारकी मृतियाँ -पोद्गलिक वर्तमान मशीन-युगके भी वह अनुरूप ही है और आकृतियाँ-हैं, जिनमे हमारे धर्मग्रन्थ निर्मित हैं और उसका प्रधान अङ्ग है। नई पुरानी अधिकांश मशीनें जिनके आगे हम मदा ही सिर झुकाया करते हैं। चक्रोंसे ही चलती है-चक्रके बिना उनकी गति नहीं। यह सिर झुकाना, वन्दना करना और आदर-सत्कार- यदि चक्रका उपयोग बिल्कुल बन्द कर दिया जाय रूप प्रवृत्त होना ही 'पूजा' है; पूजाके और कोई तो प्रायः सारा यातायात और उत्पादन एकदम रुक मींग नहीं होते।
जाय । क्योंकि रथ, गाड़ी, ताङ्गा, मोटर, साईकिल, झण्डेम जिस अशोकचक्रकी स्थापना की गई है रेल, ऐंजिन, जहाज, हवाई जहाज, रहट, चाक, उसका रहस्य अभी बहुत कुछ गुप्त है। भारतके चखो, चीं, को और कल-मिल आदि सभी प्रधान मन्त्री माननीय पं. जवाहरलालजी नेहमने उस साधनाम प्रायः चक्रका उपयोग होता है. और इस दिन वर्तमान राष्ट्रीय झण्डेका रूप उपस्थित करते लिये चक्रको श्रमजीवन तथा श्रमोन्नतिका प्रधान
और उसे पास कराते हुए जो कुछ कहा है वह बहत प्रतीक भी समझना चाहिये, जिसके बिना साग कुछ सामान्य, मंक्षिप्त तथा रहस्यके गाम्मीर्यकी संसार बेकार है । अतः जबतक अशोकचक्रका, सूचना-मात्र है-उससे अशोकचक्रको अपनानका जिसमें थाड़ासा परिवर्तन भी किया जान पड़ता है, पूरा रहस्य खुलता नहीं है। सम्भव है सरकारकी प्रतिष्ठित करने वाले अधिकारियों द्वारा इमके रहस्य
ओरमे किसी ममय उसपर विशेष प्रकाश डाला का उद्घाटन नहीं किया जाता तबतक सवसाधारण जाय । जैनकुलोत्पन्न सम्राट अशोक किन मंस्कारों में जन इस चक्रमें सूर्यकी, सुदर्शनचक्रकी, जैन तथा पले थे, कौनसी परिस्थियाँ उनके सामने थीं, उन्होंने बौद्धोंके धर्मचक्रोंमेंसे किसीकी, वर्ततान युग मशीनी किन-किन भावोंको लेकर इस चक्रकी रचना की थी, चक्रकी अथवा सभीके समावेशकी कल्पना कर सकते हैं चक्रका कौन कौन अङ्ग किस-किस भावका प्रति- और तदनुकूल उसका दर्शन भी कर सकते हैं। निधित्व करता है-खासकर उसके आगेकी २४ परन्तु मुझे तो अशोककी दृष्टिसे इस चक्रका मध्यवृत्त संख्या किस भावका द्योतन करती है, जैन तीर्थङ्करोंके (बीचका गोला) समता (शान्ति) और ज्योति (ज्ञान) 'धर्मचक्र' और बुद्ध भगवानके धर्मचक्रके साथ इसका का प्रतीक जान पड़ता है, बाह्यवृत्त संसारकी-मध्यक्या तथा कितना सम्बन्ध है और भारतकं भरतादि लोककी अथवा जम्बूद्वीपकी परिधिके रूपमें प्रतीत चक्रवतियों तथा कृष्णादि नारायणोंके 'सुदर्शन चक्र' होता है, संसारमें समता और ज्योतिका प्रसार जिन के साथ इस चक्रका कहाँ तक सादृश्य है अथवा २४ किरणां-द्वारा हुआ तथा होरहा है वे मुख्यत: उसके किस किस रूपको किस दृष्टिसे इसमें ऋषभादि महावीर पर्यन्त २४ जैन तीर्थङ्कर मालूम अपनाया गया है, ये सब बातें प्रकट होनेके योग्य होते है- दूसरों द्वारा बादको माने गये २४ अवतारों हैं। कितनी ही बातें इनमें ऐसी भी हो सकती हैं का भी उनमें समावेश है-और परिधिकं पास तथा जो अभी इतिहासके गर्भमें हैं और जिन्हें आगे चल- किरणोंके मध्यमें जो छोटे छोटे स्तूपाकार उभार हैं कर किसी समय इतिहास प्रकट करेगा। परन्तु इसमें वे इस लोककी आबादी (नगरादि) के प्रतीक जान सन्देह नहीं कि यह चक्र बड़ा ही महत्वपूर्ण है, पड़ते हैं और उनके शिरोभाग जो मध्यवृत्तकी कुछ