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भनेकान्त
[वर्ष
है। क्योंकि वीरसेन स्वामीने यह कहीं भी नहीं लिखा कि आरके मतसे प्रस्तुत सूत्रमें उक्त चउदा गुणस्थानों या 'इसी श्रार्षसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं सिद्ध होती है।' पण्डित संजद' पदका उल्लेख नहीं है । जब सूत्रमें 'संजद' पद है जीसे अनुरोध करूँगा कि वे ऐसे गलत प्राशय कदापि और उसके द्वारा चउदह गुणस्थानोंका संकेत (निर्देश) है निकालनेकी कृपा न करें।
तभी यहाँ द्रवस्त्री मुक्ति विषयक शंका पैदा हुई है और पण्डितजीका यह लिखना भी संगत नहीं है कि उसका यही समाधान किया गया है। यद्यपि पालागधिकार वरसेनस्वामीने 'संयम'पदका अपनी टीकामें थोड़ा भी जिकर श्रादिमें पर्याप्त मनुष्यनियों के चउदह गुणस्थान बतलाये नहीं किया। यदि सूत्र में 'संयम' पद होता तो यहाँ संयम' है तथापि वहाँ गतिका प्रकरण नहीं है, यहां गतिका प्रकपद दिया गया है वह किस अपेक्षासे है ? इससे द्रव्यस्त्रीके रण है और इसलिये उक्त शंका-समाधानका यहीं होना संयम सिद्ध हो सकेगा क्या ? श्रादि शंका भी वे अवश्य सर्वथा संगत है। अतः१ और चउदह १४ गुणस्थानोके उठाते और समाधान करते।'
उल्लेखका सम्बन्ध प्रकृत सूत्रसे ही है, अन्य सूत्रोंसे नहीं। हम पण्डितजीसे पूछते हैं कि 'संयम' पदका क्या अर्थ अतएव सष्ट है कि टीकासे भी ६३ सूत्र में 'संजद' पदका है ? यदि छठेसे च उदह तकके गुणस्थानोंका ग्रहण उसका समथन होता है और उसकी उसमें चर्चा भी खुले तौरसे अर्थ है तो उनका टोकामें स्पष्ट तो उल्लेख है । यदि द्रव्य- की गई है। स्त्रियों के द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों ही नहीं बनते है
५-अब केवल पाँचवीं दलील रह जाती हे सो उसके तब उनमें चउदह गुणस्थान कैसे बतलाये ? नहीं भावस्त्री सम्बन्धमें बहत कुछ पहली और दूसरी दलीलकी चर्चा में विशिष्ट मनुष्यगतिकी अपेक्षासे इनक' सत्व बनलाया गया कथन कर पाये।। हमारा यह भय कि 'इस सूत्रको हे-कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानाति चेत्, न, द्रव्यस्त्रीके गणस्थानोंका विधायक न माना जायगा तो इस भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतो तत्सत्त्वाविरोधात्'-यह क्या है? सिद्धान्त ग्रंथसे उनके पांच गुणस्थानोंके कथनकी दिगम्बर आपकी उपयुक्त शंका और समाधान ही तो है । शंकाकार मान्यता सिद्ध न हो सकेगी और जो प्रो. हीरालालजी कह समझ रहा है कि प्रस्तुत सूत्र में जो 'संजद' पद है वह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुप्रंग अावेगा।' द्रव्यस्त्रियोंके लिये श्राया है और उसके द्वारा छठेसे च उदह सर्वथा व्यर्थ है, क्योंकि विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणों, हेतुत्रों, तक के गुणस्थान उनके बतलाये गये है । वीरसेन स्वामी संगनियों, पुरातवक्के अवशेषो. ऐतिहासिक तथ्यों श्रादसे उसकी इस शंकाका उत्तर देते हैं कि चउदा गुणस्थान सिद्ध है कि द्रव्यस्त्रीका मोक्ष नहीं होता और इसलिये श्वेभावस्त्रीकी अपेक्षासे बताये गये हैं, द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे ताम्बर मान्यताका अनुषंग नहीं पा सकता । अाज तो नहीं। इससे साफ है कि सूत्रमें संजद' पद दिया हुआ है दिगम्बरमान्यताके पोषक और समर्थक इतने विपुल रूपमें और वह भावनीकी अपेक्षासे है।
प्राचीनतम प्रमाण मिल रहे हैं जो शायद पिछली शतापण्डितर्जने आगे चलकर एक बात और विचित्र लिखी ब्दियों में मो न मिले होगे । पुरातत्वका अबतक जितना कि प्रस्तुत सूत्रको टीकामें जो चउदह गुणस्थानों और अन्वेषण हो सका है और भूगर्भसे उसकी खुदाई हुई है भाववेद आदिका उल्लेख किया गया है उसका सम्बन्ध इस उस सबमें प्राचीनसे प्राचीन दिगम्बर नग्नपुरुष मूर्तियां ही सूत्रमे नहीं है-अन्य सूत्रोंसे है-इसी सिद्धान्तशास्त्रमें उपनब्ध हुई है और जो दो हजार वर्षसे भी पूर्व की है। जगह जगह और १४ गुणस्थान बतलाये गये हैं। किन्तु परन्तु सचेल मर्ति या स्त्रीमति, जो जैन निग्रन्थ हो, कहींसे पण्डितजी यदि गम्भीरतासे 'अस्मादेव आर्षाद्' इत्यादि भी प्राप्त नहीं हुई। हाँ, दशवीं शताब्दीके बादकी जरूर वास्योपर गौर करते तो वे उक्त बात न लिखते। यह एक कुछ सचेलपुरुष मूर्तियाँ मिलती बतलाई जाती है सो उस साधारण विवेकी भी जान सकता है कि यदि दूसरी जगहों समय दोनों ही परमरात्रोमें कार्फ। मतमेद हो चुका था तथा
णस्थानोंकी संगति यहाँ बेठाई गई होती तो खण्डन-मण्डन भी प्रापसमें चलने लगा था । सच पूछा 'अस्मादेव पार्षाद्' वाक्य कदापि न लिखा जाता, क्योंकि
(शेष पृष्ठ २६१ पर)