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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक-फर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(ले०–न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
गत किरणसे श्रागे]
- - सरागी और वीतरागी देवोंकी समानता-अस- असाधारण'-उसी मात्रमें रहनेवाला और तदतिरिक्रमें न
रहने वाला-धर्म होता है वही उनका व्यावर्तक लक्षण मानतापर विचार
(भेदक) माना जाता है। पर जो धर्म उभयत्र दोनों में हमने प्राप्तमीमांसाके 'अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहा- पाया जाता है वह लक्षण नहीं होता-उपलक्षण हो सकता
यः' इस द्वितीय कारिका-वाक्य ार उसक है । अत: मानवीय क्षुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव किसी प्राचार्य विद्यानन्द तथा बसुनन्दिकृत टीकागत व्याख्यानसे अपेक्षासे समानता रखने वाले सरागी और वीतरागी देवगन यह प्रमाणित एवं प्रतिपादित किया था कि प्राप्तमीमांसा- बतलानेसे वे अभिन्न नहीं हो जाते-सकषाय और अकषाय
सुधादि प्रवृत्तियाक अभावका कवलाम आभ्यन्तर का भेद उनमें स्पष्टत: मौजूद है। विग्रादि-महोदय (शारीरिक अतिशय) के रूपमें स्वीकार
अब प्रश्न सिर्फ यह रह जाता है कि फिर उसे (सुधादि किया-उसे छोदा नहीं है। किन्तु वह रागादिमान् प्रवृत्तियोंके अभावको) घातिकर्म-क्षय-न्य वा महिनीयकमस्वर्गवासी देवतालों में भी पाया जानेसे लक्षण नहीं है- जय-जन्य कसे माना जा सकता है क्योंकि इन कर्मोंसे विशिष्ट उपलक्षणमात्र है।
सरागी देवोंमें भी वह पाया जाता है ? इसपर प्रो. सा. ने यह आपत्ति उपस्थित की है कि वास्तव में सम यहीं भूल करते हैं कि सधादि प्रवृत्तियोंके यदि धादि-प्रवृत्तियोंका प्रभाव सरागी देवोंमें भी हो, तो प्रभावको सर्वथा घातिकर्मक्षय-जन्य अथवा मोहनीय कर्मसरागी और वीतरागी देवों में कोई भेद नहीं रहेगा। साथमें क्षय-जन्य ही समझ लेते हैं। पर बात यह नहीं है। क्षधादि चुधादि प्रवृत्तिोंके प्रभावको घातिकर्म-क्षय-जन्य या मोहनीय- प्रवृत्तियोंका अभाव घातिया कोंके अथवा मोहनीय कर्म के कर्म-क्षय-जन्य नहीं माना जा सकेगा; क्योंकि सरागी देवोके सर्वथा सयसे भी होता है और उनके विशिष्ट क्षयोपशमसे. घातिकर्म और मोहनीयकर्म मौजूद हैं ?
भी होता है। कोई भी गुण अथवा दोषाभाव हो वह दो इसका उत्तर यह है कि सरागी और वीतरागी देवोंमें तरहस हाता ।'-कमकि क्षयसे अथवा कोंके योपसमजो भेद है वह क्षुधादि प्रवृत्तियोंके प्रभावको लेकर नहीं है, १ 'तदितरावृत्तित्वे सति तन्मात्रवृत्तित्वमसाधारणत्वम्'।-त.। किन्तु सरागता और वीतरागताको लेकर है जैसाकि उनके २ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार नामोंसे और स्वयं प्राप्तमीमांसाकारके 'रागादिमत्सु सः कर्म घातिकर्म कहलाते हैं। इनमें मोहनीर का तो अभाव इस प्रतिपादनसे ही प्रकट है। अर्थात् जो स्वर्गबासी देव हैं तीन तरहसे होता है-उपशमसे, क्षयोपशमसे और सयसे। वे तो राग, द्वेष, मोह प्रादि दोसे विशिष्ट हैं और जो शेष तीन कर्मोका अभाव दो ही तरहसे होता है-योवीतरागी देव हैं वे उन दोषोंसे सर्वथा रहित हैं-निष पशमसे और क्षयसे । उपशम, क्षयोपशम और क्षय तीनों हैं। अत एव क्षुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव दोनों में रहनेपर हालोंमें दोषाभाव और गुण का आविर्भाव होता है। भी सरागता और वीतरागता-कृत भेद उनमें स्पष्ट है। उपशमकी हालतमें दोषभाव और गुणका काविर्भाव कितनी ही बातोंमें समानता और कितनी हीमें असमानता अन्तर्मुहूर्त जितने काल के लिये ही होता है। अत: वह दोनों हर एकमें रहती हैं। इतना ही है कि जो उनका यहाँ गौण है। क्षयोपशम अवस्थामें दोषाभाव और गुण.का