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अनेकान्त
[ वर्ष ८
दिलाने तथा तत्संबंधित प्रतिज्ञाको दुहरवाने के लिये आता स्वार्थ साधन किया है. अपने नामों के प्रागे लम्बी २ उरचरहा है। इस प्रतिज्ञापत्रका मूलमंत्र है स्व. लोकमान्य तिलक बोला उपाधियें लगाती हैं. और विभिन्न संस्थानोंकी का प्रसिद्ध सूत्र 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' सम्पत्तिपर अपना श्राधिपत्र जमा लिया है। और इसका सार है कि कि अंग्रेजी राज्य-द्वारा भारतका
क्या हम अाशा करें कि जैनी लोग अपने दानके श्रार्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और अधारिमक दृष्टिसे प्रवाहको सरमावेके 'वीरसेवामंदिर' तथा बम्बई में प्रेमीजी विनाश हया है, अत: शान्तिपूर्ण एवं वैधानिक उपायों द्वारा सम्पादित संचालित 'मानिक्यचन्द्र ग्रन्थमाला की ओर द्वारा अंग्रेजोसे संबंध विच्छेद करके पूर्ण स्वराज्य और देशकी प्रवाहित करदेंगे। स्वाधीनता प्राप्त करना तथा लक्ष्य प्राप्ति तक उसके हित
प्राचार्य जुगलकिशोरजी तथा प्रेमीजी दोनोंकी ही एक अहिंसक रीतिसे लड़ाई जारी रखना. और उसके अन्तर्गत
प्रेसकी अावश्यकता है जिसपर उनका पूरापूग निर्बाध अधिकार खादी, साम्प्रदायिक एकता, प्रस.श्यता निवारण, जातिएवं
हो और जो सर्वोत्तम एवं उन्नत छापेकी तथा लीनोटाइपकी धर्मगत भेदभाव बिना देशवासियों में प्रत्येक अवसरपर
मेशिनोंसे तथा सुयोग्य कुशल कर्मचारियों एवं अन्य साधनसद्भावनाका प्रचार करना, उपेक्षितों, प्रज्ञानियों. दीन
सामग्रीसे युक्र हो। ऐसे प्रेसके लिये कई लाख रुपये की दरिद्रयो तथा पिछड़े हुए देशवासियोंका उद्धार करना तथा
श्रावश्यकता है; और ईमानदार निस्पृह कार्यकर्त्ता तो बिना देशव्यापी मान्यसुधार, घरेलु उद्योग धंधाको प्रोत्साहन देना,
कठिनाई के मिल जायेंगे।' देशके लिये त्याग एवं कष्ट सहने तथा बलिदान होने वाले
भारतजैन महामंडल-इसका २७ वौं वार्षिक देशभनोंके प्रति श्रद्धांजली भेंट करते हुए कांग्रेसके सिद्धांतों और नीतियोंका अनुशासनके साथ पालन करने और उसके
अधिवेशन आगामी मार्च सन् ४७ में बम्बई प्रान्तीय । आहानपर बाज़ादीकी लड़ाई चलाने के लिये तैयार रहनेकी
व्यवस्थापिका सभाके अध्यक्ष श्री कुन्दनमल सोभागचन्द्र
फिरोदिया एडवोकेट अहमदनगरके सभापतित्वमें, दक्षिण प्रतिज्ञा करना।
हैदराबादमें होना निश्चित हुआ है। पं० अजितप्रसादजी एडवोकेटके विचार- वीरसेवामंदिरमें हाकिमइलाका-ता. २३-१जैनगज़ट भाग ४३ न० ११.१२ पृ० १५३ पर उसके विद्वान ४७ को ठाकुर मुन्शीसिंहजी मेजिस्टेट, हाकिमइलाका, सम्पादक पं. अजि.तप्रसादजी एडवोकेट, लखनऊ प्रेमी वीरसेवामन्दिरमें पधारे। अापने मन्दिर के कार्यालय, पुस्तअभिनन्दनग्रन्थकी समालोचना करते हुए लिखते हैं- कालय तथा भवनका निरीक्षण किया, 'अनेकान्त पत्र' को "जैन समाजमें कोदियों पंडित हैं, किन्तु उनमेंसे केवल दो जनताके लिये हितप्रद और मन्दिरकी लाइब्रेरीको अनुपम ही ऐसे हैं जिनका उल्लेख हम जैन साहिसिक अनुसंधानके बताया; अधिष्ठाताजी तथा अन्य कार्यकत्ताओंके कार्यकी सेगमें निस्वार्थ कार्यकर्तायोंके रूपमे कर सकते हैं। श्राचार्य सराहनाकी, जनताका और विशेषकर जैन जनताका ध्यान जुगलकिशोरजी मुख्तार, जिनके सम्मानका दो वर्ष पूर्व प्राश्रमकी सहायता करनेकी ओर आकर्षित किया। कलकत्तेमें प्रायोजन किया गया था और जिन्होंने सरसावा, स्वामी माधवानन्दजीका संदेश-भारतीय जि. सहारनपुर, में वीर सेवा मन्दिरकी स्थाना करनेमें संस्कृतिको गँवाकर स्वराज्य प्राप्त करना हेय है। भारतीय अपना सर्वस्व बलिदान करदिया है, मात्र एकही ऐसे विद्वान संस्कृतिका संरक्षण करते हुए स्वराज्य प्राप्त करना प्रत्येक हैं जिनने प्रेमीजीकी भौति साहस, निर्भीकता एवं लगन भारतीयका कर्तव्य है। भारतीय धर्म ही सच्ची शान्तिका पर्वका धार्मिक साहित्यरूपी महासागरकी गहराइयों में सचा उपाय है। भारतीय संस्कृति दैवी संपदाका प्रतीक इबकी लगाकर वहाँसे अमूल्य श्राबदार मोती निकाल संसार है। यूरोप आदि देशोकी संस्कृति प्रासुरी संपदाका प्रतीक को प्रदान किये हैं और, जबकि दूसरोंने केवल किनारकी सिवार है। जिस स्वराज्यभवनकी नींव अभारतीय संस्कृतिपर मेंसे सीपियें ही एकत्रित की हैं और उन्हें भी विक्रय करके अवलम्बित हो, उसका ध्वस्त होजाना निश्चित है।' J. P.