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जैन-गुगा-दर्पणा
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(संस्कृत मूलका हिन्दी रूपान्तर) कर्म-इन्द्रियोंको जीतै जो, 'जिन' का परम उपासक जो । हेयाऽऽदेय - विवेक - युक्त जो, लोक - हितैषी जैनी सो ॥१॥ अनेकान्त - अनुयायी हो स्याद्वाद - नीतिसे वतैं जो । बाध - विरोध - निवारण - ममरथ, ममता - युत हो जैनी सो ॥२॥ परम अहिंसक दया-दानमें तत्पर सत्य-परायण जो । धरै शील - सन्तोष अवंचक, नहीं कृतघ्नी जैनी सो ॥३॥ नहिं आसक्त परिग्रहमें जो, ईर्पा-द्रोह न रखता हो । न्याय-मार्गको कभी न तजता, सुख-दुग्वमें सम जैनी मो ॥४॥ लोभ · जयी निर्भय निशल्य जो, अहंकारसं रीता जो । सेवा-भावी गुण-ग्राही जो, विषय - विजित जैनी सो ॥५॥ राग-द्वेपके वशीभूत नहि, दूर मोहसे रहता जो । म्वात्म - ध्यानमें सावधान जो, रोप-रहित नित जैनी सो ॥६॥ सम्यग्दशन- ज्ञान-चरण - मय, शान्ति-विधायि मुमुक्ष जो । मन-वच-काय-प्रवृत्ति एक हो जिमकी निश्चय जैनी सो ॥७॥
आत्म - ज्ञानी सध्यानी जो, सुप्रसन्न गुण - पूजक जो । नहि हठग्राही शुची सदा संक्लेश-रहित-चित जैनी मो ॥८॥ परिपह - उपसर्गोको जीतै, धीर - शिरोमणि बनकर जो । नहीं प्रसादी मत्संकल्पों में महान् दृढ जैनी सो ॥९॥ जो अपने प्रतिकूल दूसरोंके प्रति उसे न करता जो । सर्वलोकका अग्रिम सेवक, प्रिय कहलाता जैनी सो ॥१०॥ पर-उपकृतिमें लीन हुआ भी स्वात्मा नहीं भुलाता जो । युग-धर्मी 'युग-वीर' प्रवर है, मचा धार्मिक जैनी सो ॥१शा वीरसेवामन्दिर ।
जुगलकिशोर मुख्तार सरमावा (सहारनपुर)
विज्ञप्ति-प्रत्येक जैनीको प्रतिदिन इस आदर्शरूप दर्पण में अपना मुम्ब देखना
चाहिए और यह मालूम करना चाहिए कि वह कहाँ तक-कितने अंशोंमें-जैन है । साथ ही, सच्चा तथा पूर्ण जैन बननेके लिये, अपनेमें जैन-गुणोंके विकामका बगबर दृढताके साथ प्रयत्न करना चाहिए । यही इस दर्पण के निर्माणका उद्देश्य है।