________________
किरण १०-११ ]
महाकवि हरिचन्दका समय
३८१
व्रतोंका वर्णन भी किया गया है। उस वर्णनमें निम्न पुस्तकभण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी जो हस्तलिखित श्लोक भी हैं
प्रति है वह वि० १२८७ की लिखी हुई है। और मुहूर्तद्वितयादृर्ध्व भूयस्तोयमगालितम् । इलिये उससे यह निश्चय हो जाता है कि महाकवि शीलयेनवनीतं च न देशविरतिः कचित् ।।१३।। हरिचन्द उक्त मंवतसे बादके तो किसी भी तरह दिनद्वयोपितं तवं दधि वा पुष्पितौदनम । हो नहीं सकते।
आमगोरसमंपृक्तं द्विदलं चाद्यान्न शुद्धधीः ॥१६६।। पं० आशाधरने अपने सागारधर्मामृतकी टीका विद्धं विलितम्वादं धान्यमद्विमढकम । वि० सं० १२९६ में बनाकर सम्पूर्ण की है। और नेलम्भोऽथवाज्यं वा चापात्रापवित्रतम ।।१३७।। जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ में । उसकी प्रशस्तिमें आद्रकन्दं कलिङ्गं वा मृलक कुसमानि च । जिन दस ग्रन्थोंक नाम दिये हैं, उनमें धर्मामृत भी अनन्तकायमज्ञातफलं मंधानकान्यपि ॥१३८॥ है, जिसका ही एक भाग सार
अतः य श्शाक देखते ही हम पं. आशाधरके निम्न यह तो सुनिश्चित है कि सागारधमामृतकी रचना श्लोकोंका ध्यान हो आया
वि. मं०१२८५ से पहले हो चुकी थी। किन्तु कितने मधुवन्नवनीतं च मुञ्चेनत्रापि भूरिशः । पहले हो चुकी थी, यह निश्चित नहीं है। द्विगुहात्पर शश्वत्ममजन्त्यंगिराशयः ॥१२ अ.
पं० आशाधरकी प्रशस्तिके आधारपर श्रीयुत
प्रेमीजीने लिखा हैगत्रिभक्तं तथा युयान्न पानीयमगालितम ।।
___वि० सं० १२९४ में लगभग जब शहाबुद्दीन
गौरीनं पृथ्वीराजको कैद करके दिल्लीको अपनी मन्धानकं त्यजेत्सर्व दधि तक्रं द्वयहोपिनम। राजधानी बनाया था और अजमेरपर भी अधिकार काञ्जिकं पुप्पिनर्माप मद्यव्रतमलोऽन्यथा ।।११ अ.३ कर लिया था, तभी पं० आशाधर माडलगढ चमम्थमम्भ: म्हश्च हिग्वमंहतचर्म च । छोड़कर धारामें आये होंगे। उस समय वे किशोर मर्व च भोज्यं व्यापन्नं दोपः स्यादामिपत्रत ॥१२॥ हांगे, क्योंकि उन्होंने व्याकरण और यायशास्त्र सर्व फलमविज्ञातं .
वहीं आकर पढ़ा था, यदि उस समय उनकी उम्र
५५-५६ वर्षकी रही हो तो उनका जन्म वि० संवत् अनन्तकायाः सर्वेऽपि सदा या
५२३५ के आम पाम हुआ होगा।' श्रामगारमसम्पृक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवम ॥ अ. ५। इस हिसाबसे वि० म० १२८५ में पं० श्राशाधर
प० अाशाधरजीके ग्रन्थों धर्मशाभ्युदयका की उम्र ५. वपकी ठहरती है, उस समय तक वे एक भी उद्धरण न होने और
१. ग्रन्थ निर्माण कर चुके थे, जिनमें भरतेश्वरा
दय और मागारधर्मामृतक उक्त पद्योंके मिलानसं हमें यह भ्युदयकाव्य, प्रमयरत्नाकार और धर्मामृत जैसे विश्वास हो चला कि धर्मशर्माभ्यदय अवश्य ही उच्चकोटिक ग्रन्थ थे। यदि इन ग्रन्थोंक निर्माणके मागारधर्मामृत के बाद की रचना है और धर्मशर्मा- लिय बीस वर्षका ममय रख लिया जाय तो कहना यदयकं कर्ता कवि हरिचन्दन जो वान चन्द्रप्रभ होगा कि पं० श्राशाधरने वि. मवन १२६५ से अन्तिम सग नहीं पाया उस सागारधर्मामतसं लिया यानी ३० वपकी उम्रम ग्रन्थरचना करना प्रारम्भ है। किन्तु इसमें एक बाधा आती थी।
किया । अब यदि उन्होंने १२६७ में भी मागारप्रमीजीने पनी जैन साहित्य और इतिहास, धर्मामृन रचा हो तो धर्मशमाभ्युदयकी उक्त प्रति उससे नामक पुस्तक 'महाकवि हरिचन्द्र' नामक निबन्ध- २० वर्ष बादकी ठटरती है। वीम वपमें कोई नया में लिखा है कि पाटण (गुजरात) के संघवी पाड़ाके १ जैन माहित्य और इतिहास पृष्ठ १३३ ।
धमशम